आज सामाजिक संस्थाओं के चुनाव की बात करे, तो हमे सर्वप्रथम इस बिन्दु पर विचार करना होगा कि, हमारे सामाजिक नेतृत्व का चुनाव कैसे किया जाना चाहिये, चुनाव कि बात करे तो इसमे इस बात की अहम् भूमिका है, कि सामाजिक संस्थाऐ समाज कि सेवाओं के लिए बनी है यह कोई राजनैतिक मंच नही है। जिस प्रकार राजनैतिक नेतृत्व के चुनाव मे साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार सामाजिक नेतृत्व के चुनाव मे ऐसी परिपाढी को अपनाया जाना, ना केवल उन्हे राजनैतिक मंच बनाने का प्रयास है अपितु यह समाज के अन्दर ही गुटबाजी पैदा करने का एक जरिया है, जो फूट डालो राज करो कि नीति पर आधारित है । जिससे समाज के विकास कि कल्पना करना निरर्थक है ।
प्रश्न यह उठता है, कि तो फिर सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व का चुनाव किस प्रकार किया जाये या किसी परिपाढी का उपयोग किया जाए । ऐसी स्थिति मे यह ध्यान रखने योग्य बिन्दु है कि सामाजिक संस्थाओं के चुनाव मे जिन साधनो का भी उपयोग होता है उसकी किमत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज को ही चुकानी पड़ती है, तो फिर चुनाव की क्या विधि या प्रक्रिया हो, यह एक बड़ा प्रश्न है ।
मेरा मानना है कि सामाजिक संस्थाओं के नेृतत्व का चुनाव जहा तक संम्भव हो निर्विरोध किया जाना चाहिये यदि किसी कारणवश आम सहमति बनाना संम्भव ना हो तो चुनाव की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिये कि कम से कम लागत आये, तथा चुनाव प्रक्रिया कि सम्पूर्ण व्यवस्था संस्था के हाथो मे होनी चाहिये, जिसमे प्रचार, प्रसार, विज्ञापन साम्रगी आदि शामिल है । उम्मीदवार के द्वारा किसी प्रकार का कोई खर्चा नही किया जाना चाहिये । चुनाव, राष्ट्रपति प्रणाली द्वारा कराया जाना चाहिये जिसमे केवल अध्यक्ष पद का ही निर्वाचन किया जाना चाहिये, तथा कार्यकारिणी के अन्य पदाधिकारियों जैसे-उपाध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष कि नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा की जानी चाहिये । संस्था द्वारा किये जाने वाले कार्यो का प्रस्ताव कार्यकारिणी द्वारा सहमत होने पर अध्यक्ष द्वारा संस्था की आम सभा मे रखा जाना चाहिये, तथा बहुमत द्वारा स्वीकृति मिलने पर उसे क्रियान्वित किया जाना चाहिये । ऐसी चुनाव प्रणाली मे अध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि कम होनी चाहिये ताकि इस एकाधिकार प्रणाली का दुरूपयोग न कर सके । यह एक मितव्ययी प्रणाली है, वर्तमान समय मे विश्व के जिन राष्ट्रों मे यह प्रणाली लागू है वे आज सभी विकसित राष्ट्रों कि श्रैणी मे आते है जैसे-अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस, श्रीलंका आदि । आज दुनिया मे राष्ट्रपति लोकतान्त्रिक प्रणाली अधिक सफल है, जिन देशो मे लोकतान्त्रिक प्रणाली है, वे देश भष्ट्राचार, लालफिताशाही आदि अनेक बिमारियों से ग्रसित है, जिसका भारत, पाकिस्तान एक प्रमुख उदाहरण है । लोकतान्त्रिक प्रणाली मे आज जिस प्रकार कार्यकारिणी पदाधिकारियो के चुनाव होते है और उसके बाद जिस प्रकार कार्यकारिणी पदाधिकारियो मे संस्था के संचालन सम्बन्धी, गुटबाजी और विरोधाभाषी बयान आते है, उससे चुनाव प्रणाली और समाज के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है । आज देश और समाज मे कार्यरत जितनी भी संस्थाए असफल है, उसका मूल कारण लोकतान्त्रिक प्रणाली है, जिसका मूल कारण नियन्त्रण का अभाव है ।
सामाजिक संस्थाओं का मूल उदेश्य:- समाज को एक अच्छा नेृतत्व प्रदान करना और समाज के अधिकारो की रक्षा करते हुए सामाजिक उत्थान के लिए ठोस प्रयास करना । सामाजिक संस्थाओं कि चुनाव प्रक्रिया मे आमतोर पर उन सभी लोगो को शामिल किया जाना अनिवार्य है, जो संस्थाओं को सर्वाधिक दान देते है, तथा समाज के विकास मे हमेशा त्याग करने के लिए तत्पर रहते है । हमे ऐसे व्यक्तियों को आगे लाना होगा, तभी समाज का विकास सम्भव है ।
यदि कोई व्यक्ति सामाजिक चुनाव को अपनी आन-बान का प्रश्न बनाता है तो उससे सामाजिक ढाचें पर बुरा प्रभाव पड़ता है और सामाजिक गुटबाजी को बढ़ावा मिलता है यह किसी भी लियाज से समाज के लिए फायदेमंद नही है ।
चुनाव की प्रक्रिया मे आज जिस कार्यकारिणी पदाधिकारियो के चुनाव होते है और उसके बाद जिस प्रकार कार्यकारिणी और संस्था के संचालन मे गुटबाजी और विरोधाभाषी बयान आते है जिससे इस चुनाव प्रणाली और समाज के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है ।
वर्तमान समय मे जिस प्रकार सामाजिक संस्थाओ के चुनाव राजनैतिक अखाड़े की तरह लड़े जा रहे है, उससे समाज के विकास पर संदेह पैदा होता है । जिस प्रकार मतदाताओं को आने-जाने व खाना-पीने की सुविधा दी जाती है जिससे समाज के विकास पर विपरित प्रभाव पड़ता है जिससे उसके लाभदायक होने की उम्मीद करना बेमानी है ।
जिस प्रकार उम्मीदवार एक स्थान से दुसरे स्थान, दौरे पर दौर व प्रचार-प्रसार करते है, जिसका प्रतिफल चुनाव जीतने के बाद भी उन्हे शून्य से ज्यादा कुछ मिलने वाला नही है । इस परिपाठी को जब समाज के विद्धान और वरिष्ट व्यक्तियो द्वारा उपयोग किया जाता हो तो, ऐसी स्थिती मे समाज किस दिशा मे जायेगा, यह एक गम्भीर प्रश्न है ।
ऐसी परिपाठी के कारण ही आज चाहे वह देश का नेतृत्व हो या समाज या संगठन का सभी मे युवा वर्ग बहुत दूर-दुर तक नजर नही आता है जबकि इस देश की आबादी मे 70 प्रतिशत युवा वर्ग है, क्योकि उसके पास ऐसे अनावश्यक साधन नही है, जो चुनाव लड़ने के लिए चाहिये, जिसका परिणाम यह है कि सामाजिक संस्थाओं को कुछ लोगों ने पूंजीवादी व्यवस्था की तरह नियन्त्रित कर रखा है, जिससे ऐसा लगता है कि वह चुनिन्दा पूंजीपति वर्ग तक सीमित होकर रह गई है, जो केवल अपने नाम को रबड़ स्टाम्प बनाकर, बैठ गये है, जिससे समाज का भला होने वाला नही है । हमे ऐसी चुनावी व्यवस्था को अपनाना होगा, जो बहुत मितव्ययी हो और पारदर्शी हो जिसमे अधिकतम लोगो को नेतृत्व करने का मोका मिल सके, जो समाज की सेवा करना चाहते हो, ताकि समाज की युवा पीढ़ी मे नेतृत्व के गुण विकसित हो सके ।
जिस प्रकार समाज के एक छोटे से चुनाव मे 5-5 या 10-10 लाख रू. उम्मीदवारो द्वारा खर्च किये जाते है, यह समाज के लिए बहुत घातक है, यदि यह पैसा उम्मीदवार समाज के विकास मे सीधे खर्च करते है तो वे समाज के एक मुख्य प्रतिनिधि या किसी संस्था के अध्यक्ष से कम हैसियत नही रखते और वे समाज के एक जिम्मेदार, त्यागवान, विकासोन्मुखी चेहरा बनते है, जिसकी आज समाज को आवश्यकता है ।
लेखक : कुशाल चन्द्र रैगर, एडवोकेट
अध्यक्ष, रैगर जटिया समाज सेवा संस्था, पाली (राज.)