मानव एक सामाजिक प्राणी है। ‘प्राणी’ इस जगत का सर्वाधिक विकसित जीव है ओर इस समाज के बिना उसका रहना कठिन ही नहीं असंभव है। माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदारों आदि लोगों को मिलाकर ही इस समाज की रचना होती है। समाज के बिना मानव का पूर्ण रूप से विकास होना सम्भव ही नहीं है। इसलिए मानव को हर कदम कदम पर समाज की आवश्यकता होती है समाज के लोगों के बीच ही हम अपने जीवन का अधिकतर समय व्यतित करतें है। हम जिस समाज में रहते हैं उन्हीं के बीच हम खाते हैं, पीते हैं, जीते हैं व रहते है हमे निस्वार्थ भाव से समाज के लोगों की सेवा, मदद, हित करना। इससे पूरे राष्ट्र की व्यवस्था मे सुधार किया जा सकता है। समाज सेवा के द्वारा सरकार और जनता दोनों की आर्थिक सहायता की जा सकती है। पड़ोसियों की सेवा करना भी समाज सेवा ही है। आज हमारे देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर है, अतः समाज की सेवा करना हर युवा का कर्तव्य है। समाज के सेवकों का यह कर्तव्य है कि वे सच्चे दिल से समाज की सेवा करें। सच्चे हृदय से की गयी समाज सेवा ही इस देश व इस पूरे संसार व समाज का कल्याण कर सकती है।
जिस तरह हर व्यक्ति निस्वार्थ भाव से अपने परिवार की तन, मन, धन से समर्पित होकर पूर्ण रूप जिम्मेदारी/दायित्व उठाते हुए सेवा करता है। उसी प्रकार हर व्यक्ति की अपने समाज के प्रति भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने परिवार की तरह ही अपने समाज के लिये सौच विचार करे तथा समाज के प्रति अपने कर्त्वयों का निर्वाह करे ओर समाज सेवा को एक जिम्मेदारी के साथ निभाये। हमारा परिवार भी समाज का एक हिस्सा होता है। उसी समाज के कारण आज हमारी और हमारे परिवार की पहचान होती है। इसलिये जितनी जिम्मेदारी हमारी हमारे परिवार के लिये होती है उतनी ही जिम्मेदारीयां हमारी हमारे समाज के प्रति भी बनती है ओर इन जिम्मेदारीयों का परिवहन बिना किसी निस्वार्थ भाव के करना समाज के हर नागरिक का कर्तव्य है।
मानव होने के नाते जब तक हम एक-दूसरे के दुःख-दर्द में साथ नहीं निभाएँगे तब तक इस जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी। वैसे तो हमारा परिवार भी समाज की ही एक इकाई है, किन्तु इतने तक ही सीमित रहने से सामाजिकता का उद्देश्य पूरा नहीं होता। हमारे जीवन का अर्थ तभी पूरा होगा जब हम समाज को ही परिवार माने। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को हम जितना अधिक से अधिक विस्तार देंगे, उतनी ही समाज में सुख-शांति और समृद्धि फैलेगी। मानव होने के नाते एक-दूसरे के काम आना भी हमारा प्रथम कर्तव्य है। हमें अपने सुख के साथ-साथ दुसरे के सुख का भी ध्यान रखना चाहिए। अगर हम सहनशीलता, संयम, धैर्य, सहानुभूति, और प्रेम को आत्मसात करना चाहें तो इसके लिए हमें संकीर्ण मनोवृत्तियों को छोड़ना होगा। धन, संपत्ति और वैभव का सदुपयोग तभी है जब उसके साथ-साथ दूसरे भी इसका लाभ उठा सकें। आत्मोन्नति के लिए ईश्वर प्रदत्त जो गुण सदैव हमारे रहता है वह है सेवाभाव, समाज सेवा। जब तक सेवाभाव को जीवन में पर्याप्त स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। कहा भी गया है की भलाई करने से भलाई मिलती है और बुराई करने से बुराई मिलती है…….
लेखक : ब्रजेश हंजावलिया – मन्दसौर (म.प्र.)