चलिए आज हम बात करते है, अपने सामाजिक दायित्व की । यह ठीक वैसा ही प्रश्न है, जैसा कि, एक संतान का अपने माता-पिता के प्रति क्या दायित्व और जवाबदेहीता होना चाहिये ।
वैसे आम तोर पर हमेशा बात लेने की आती है, जैसे- मुझे क्या मिलेगा, मुझे क्या दिया, मेरा क्या फायदा होगा, मेरा क्या मतलब है, मुझे क्या लेना-देना है । व्यक्ति अपने माता-पिता से भी, यह उम्मीद करता है, और अपने देश से भी, साथ ही उम्मीद करता है कि मुझे मेरे समाज से क्या मिलेगा और क्या मिलने की उम्मीद है । इसी गणित मे लगा रहता है, या कहे की, हमेशा उसकी स्थिति भिखारी की तरह ही बनी रहती है ।
उक्त पहलू पर व्यक्ति, अपने दिन के 24 घंटे, 365 दिन, साथ ही सम्भव हो तो, प्रत्येक सैकण्ड, कुछ पाने की जुगाड़ मे लगा रहता है । कितनी विचित्र स्थिति है कि, भगवान ने जिस इन्सान को इतना बुद्विमान बनाया कि, वो चन्द्रमा पर चला गया, लेकिन उसके बाद भी, उसकी मानसिक दशा बदली नही है । क्या हम इन्हें इन्सान कहे, तो यह 100 फिसदी तो सच नही हो सकता । इस दुनिया मे यदि श्रेष्ठतम कोई है तो वह इन्सान । दुनिया का श्रेष्ठतम इन्सान भी भिखारी बन जाता है तो, उसमे पशु के लक्षण आने स्वाभाविक है ।
तो फिर हमे क्या करना चाहिये, हमे यह कभी नही भूलना चाहिये कि, व्यक्ति के अधिकार, दायित्व और जवाबदेहीता साथ-साथ चलते हैं । यदि वो अधिकारों को धारण करता है तो उसे दायित्वों का भी निर्वाह करना ही होगा । इसके लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार नही ठहराया जा सकता । यह ध्यान रहे कि, जब व्यक्ति का जन्म समाज में होता है तो, समाज में जन्म के साथ ही, उसको कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते हैं और साथ उसका समाज के प्रति दायित्व भी उत्पन्न होता है ।
आज समाज के सामाजिक परिवेश की बात करे तो, इतिहास गवाह है कि, समाज को दिशा देना, उसका मार्गदर्शन करना, समाज के बुद्विमान लोगों का दायित्व है । वे अपने दायित्व से पीछे नही हट सकते, क्योंकि आज भारत आजाद है तो, यह आजादी किसी गरीब या धनवान लोगों की देन नही है । यह बुद्विमान देशभक्त लोगों की मेहनत बलिदान का ही परिणाम है । आज जो भी परिवार, समाज विकसित व साधन सम्पन्न हुये है, वे सभी समाज के बुद्विजीवी लोगों के त्याग व मेहनत के कारण है । अब प्रश्न उठता है कि, जो परिवार व समाज पिछड़े है उसके पीछे मूल कारण क्या है, इसका भी सीधा सा उत्तर है कि, इसके पीछे भी एहसान फरामोश बुद्विमान लोग है, जिन्होंने समाज से लिया तो सब कुछ, लेकिन जब देने की बारी आई तो अपनी अक्कल का उपयोग करते हुए, किनारा कर दिया और अगुंठा बता दिया ।
पिछड़ेपन की बात करे तो, यह समस्या अधिकतर दलित वर्ग मे है, और कही-कही आदिवासीयों मे भी विधमान है । यह बात केवल मै ही नही कह रहा हूँ, यह बात आज से 50 वर्ष पूर्व बाबा साहेब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर कहकर चले गये । उन्होने आरक्षण जैसा चमत्कारिक अधिकार दिया । जिसके कारण एक व्यक्ति स्कूल, कॉलेज मे प्रवेश से लेकर नोकरी पाने तक अपने इस अधिकार का प्रयोग, इतने आत्मविश्वास के साथ करता है, जैसे की खरीदा हुआ हो, और फायदे पर फायदे लिये जा रहा है । वह अपने अधिकार का फायदा लेने के चक्कर मे, अपने दायित्व को भूल गया । इसलिए बाबा साहेब ने बड़े दुखी मन से कहा कि, मुझे मेरे पढ़े-लिखे बुद्विमान लोगों ने धोखा दिया है ।
आज भी यही हो रहा है । आज यदि कुछ अच्छे लोगों को छोड़ दे तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारी इसमें शामिल नजर आते हैं, क्योंकि आज देखा जाऐ तो, दलित आदिवासियों का विकास सरकारी नोकरी के बलबूते ही हुआ है, क्योंकि इन्होंने आरक्षण के अधिकार से नोकरी ले ली, लेकिन इसके बदले समाज के प्रति दायित्व नही निभाने के कारण, आज समाज भी पिछड़ा है और वह स्वयं भी व्यक्गित रूप से कमजोर है । यह बीमारी अधिकतर दलित आदिवासी अधिकारियों मे है । देश के 30 प्रतिशत दलितों आदिवासीयों का हक, 3 प्रतिशत दलित व आदिवासी सरकारी कर्मचारी खा रहे हैं । उन्हे यह दिखाई नही दे रहा है और यदि उन्हे आयना भी बताये तो किसकी हिम्मत, क्योंकि कोई इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था से पंगा लेना नही चाहता । कारण है कि, मेरा क्या लेना-देना, मेरा क्या फायदा, ऐसे प्रश्न उसके अन्दर उत्पन्न होने लग जाते है और उसके आस-पास ऐसी ही राय देने वाले लोग, जो उसे कमजोर बनाते हैं । फिर याद आती है बाबा साहेब की, जो इतनी विषम परिस्थितियों मे ऐसा काम करके चले गये, जिसकी हम कल्पना भी नही कर सकते । फिर कही हिम्मत बढती है कि, हम तो आज उनसे कही गुना अधिक अच्छी स्थिति मे है । यही सोचकर यह सच्ची बात, बयान कर रहे हैं ।
तो फिर हम क्या करे, हमे अपने अन्दर त्याग की भावना पैदा करनी होगी तथा इस बात पर विचार करना होगा कि इस समाज मे पैदा होकर, हमने समाज को क्या दिया, समाज ने हमे गाड़ी, बंगला, राज-पाट, एश-आराम, धन-दौलत, सुख सभी दिया, इसके बदले मे हमने क्या दिया । यह कोई उधार नही है, यह तो ऋण है, समाज का हमारे ऊपर, जिसे हमे हर हालत में उतारना है । यदि हम, इस ऋण को नही चुकाते हैं तो, हमारा जीवन तो पशु समान ही रह जायेगा ।
मेरा उन सभी लोगों को सन्देश है कि, जो अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव में हैं, यह मंथन करे कि, उन्होंने इस समाज मे पैदा होकर, समाज को क्या दिया है । आप ने, अपने जीवन में लाखों करोड़ो रूपये कमाऐ हैं, जिसमे कुछ ईमानदारी से और कुछ बेईमानी से । इसमे कुछ हिस्सा यदि हमने समाज कल्याण मे दान कर दिया तो, आपकी भावी पीढ़ी पर कोई फर्क नही पड़ने वाला है ।
उदाहरण के लिये यदि अपनी आय का कुछ हिस्सा दान कर दिया है, तो भी बेटा, बाप को बाप ही कहेगा और उसका परिणाम यह होगा की, आपका समाज के प्रति दायित्व भी पूर्ण होगा और आपको समाज सम्मान भी देगा, नतीजा आपकी संतान भी आपका अधिक सम्मान करेगी, जो आपकी भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहेगा और समाज का विकास भी होगा । जो कही न कही आपके परिवार का ही हिस्सा है । आपको इसे जिम्मेदारी के तोर पर मानना होगा और आपकी यह जिम्मेदारी मे भी आता है । आप इस जवाबदेहीता से किनारा नही कर सकते । इस किनारे के कारण ही, आज तक, समाज पिछड़ा, गरीब, साधन विहीन बना हुआ है ।
अधिकतर देखने मे आता है कि, दूसरे लोग तो समाज के लिए कुछ करते नही, तो मैं क्यू करू, तो बहुत साफ है कि, वे अपने आप को इन्सान तो कहते हैं, लेकिन ऐसा कुछ करते नही । मेरा मानना है कि, हमे इन्सान बनने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि, इन्सान ही दूसरे के लिये कुछ कर सकता है, पशु नही ।
अन्त मे एक छोटी सी बात, महान सिकन्दर यूनान से युö जीतते-जीतते भारत आ गया, सम्राट बन गया, लेकिन मरने से पहले, उसने अपने लोगों से कहा कि, मेरे दोनों हाथ कब्र से बाहर रख देना, क्योंकि दुनिया मे देखने वालों को पता चले कि, मैं दुनिया मे खाली हाथ आया था, खाली हाथ जा रहा हूँ, साथ कुछ नही ले जा रहा हूँ ।
कुछ बुरा लगे, लेकिन यह सच है । कहते है कि, सच हमेशा कड़वा होता है और मैं भी यही कह रहा हूँ । मैने अनुसरण किया है, आप भी करे, बहुत खुशी मिलेगी । हमे अपने जीवन मे, अपना त्याग तो, निर्धारित करना ही होगा । अक्सर सुनने मे आता है कि फलाना-फलाना व्यक्ति दुनिया छोड़ गये, पहले तो मुझे बहुत दुख होता था, लेकिन अब सोचता हूँ कि, वो जिंदा थे, तब समाज के लिए क्या फायदा था, जो मरने पर नुकसान हो गया । लोग कहते है कि, अच्छा व्यक्ति था, मे कहता हूँ कि, कैसे, मुझे समझाये । केवल अपनी पत्नि, बेटा-बेटी के लिए अच्छे होंगे, हमारा क्या लेना-देना । इसलिए हमे निजी स्वार्थों की परिधी से बाहर निकलकर, कुछ त्याग करने की आवश्यकता है, जल्दी करे, समय जा रहा है, कुछ करना है तो, कर दे, अन्यथा पछतावे के अलावा और कुछ नही मिलेगा ।
लेखक : कुशाल चन्द्र रैगर, एडवोकेट
M.A., M.COM., LLM.,D.C.L.L., I.D.C.A.,C.A. INTER–I,
अध्यक्ष, रैगर जटिया समाज सेवा संस्था, पाली (राज.)
माबाईल नम्बर 9414244616