भारत विभिन्न धर्मों का संगम स्थल है जो इसकी सांस्कृतिक एकता का प्रतिरूप हैं । यहाँ पर धर्म व सम्प्रदायों की पहचान उनके त्यौहारों उत्सवों, पूजा अर्चना तथा आराध्य देवी-देवताओं में समाहित है । इय जगत में ब्रह्मा-सृष्टिकर्ता, विष्णु-पालनकर्ता व महेश-संहारकर्त्ता के रूप में देवीय कार्यों को माया मानकर करीब 33 करोड़ देवी-देवताओं की श्रद्धा भाव से पूजा अर्चना हिन्दू धर्म में की जाती है । जगत पालनकर्त्ता विष्णु समय-समय पर धरती पर विभिन्न रूपों में अवतरित होकर धम्र का उपदेश व स्थापना करते हैं । इन्हीं अवतारों की परम्परा में श्री रामदेव जी महाराज ने भी अवतार लिया । भारत के मरूपद्रश में सुनहरे रेत के सागर का शहर- जैसलमेर, रणबांकूरों की धरती राजस्थान का आभूषण है । जैसलमेर के पौखरण जिला-रूणीचा के रामदेवरा गाँव में श्री बाबा रामदेव जी का मंदिर है । जहाँ हर वर्ष भादो शुदी चाँदनी दूज से द्वादशी तक मेला लगता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु भक्त विभिन्न प्रान्तों से यहाँ पहुंचकर प्रसाद में नारियल, चावल, चूरमा, मिश्री, मेवा आदि भेंट चढ़ाकर अपनी मनोकामना पूर्ण करते है । श्रद्धालु भक्त धर्म, जाति-पात, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का भेद-भाव मिटाकर इस साम्प्रदायिक सद्भावना के प्रतीक पवित्र ऐतिहासिक स्थल में साम्प्रदायिक भक्ति के रस, मानवीय सद्भावना और मानव जाति की सेवा में विश्वास व आस्था में निरन्तर धारा प्रवाह रूप से अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं ।
भारत की इस पवित्र धरती पर समय समय पर अनेक संतों, महात्माओं, वीरों व सत्पुरुषों ने जन्म लिया है ओर उस समय की आवश्यकतानुसार उन्होंने समाज को नई राह दिखाकर समाज का कल्याण किया साथ ही दुखों से त्रस्त मानवता को दुखों से मुक्ति दिला जीने की सही राह दिखाई । 15वी. शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट खसोट, छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितिया बड़ी अराजक बनी हुई थी । ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर चेत्र शुक्ला पंचमी वि.स. 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए । द्वारकानाथ ने राजा अजमल जी के घर अवतार लियाद्ध जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, वैर-द्वेष, छुआछुत का विरोध कर अछुतोद्वार का सफल आन्दोलन चलाया । बाबा ने अधिकतर दलितों, पिछड़ों व निर्धनों के मध्य उनके कष्ट निवारण में विशेषकर ध्यान दिया ।
रूणीचा में श्री बाबा रामदेव जी ने गाँव बसाया जिसे रामदेवरा के नाम से जाना जाता है और यहाँ एक तालाब भी खुदवाया जिसे रामसरोवर के नाम से जाना जाता है । यहीं भदो सुदी एकादशी को श्री बाबा रामदेवजी ने जीवित समाधि ली थी । जिस स्थान पर समाधि है वहीं पर बीकानेर के राजा गंगासिंह ने मंदिर का निर्माण करवाया था । इस मंदिर की ऐतिहासिकता और पवित्रता देखते ही बनती है ।, जहाँ पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु भक्त दूर-दूर से नंगे पाँव टोलियों में गाते-बजाते, लेट-लेटकर तथा लम्बी कतारों में खड़े होकर अपने श्रद्धा सुमन समाधि पर चढ़ाकर अपने को धन्य समझते है । यही नहीं भारतवर्ष में करीब 52 हजार मंदिरों में लाखों-करोड़ों श्रद्धालु नर सेवा ही नारायण की सेवा है में रमकर इस साम्प्रदायिक एकता के प्रतिक देवता का पूजन कर अपने गीतों व भजनों में गाते हुए कह उठते हैं –
खम्मा-खम्मा-खम्मा हो रूणीचा रा धणिया ।
थाने तो ध्यावें…… अजमल जी रा कंवरा ।।
बाबा की मान्यता सभी मजहब के लोगों हिन्दू व मुसलमानों के मध्य में श्रद्धा सहित है । हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था । सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहाँ हिन्दुओ के देव है तो मुस्लिम भाईयों के लिए रामसा पीर । मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते है वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पॉँच पीरों की प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है ।
पाबू हडू रामदे ए माँगाळिया मेहा ।
पांचू पीर पधारजौ ए गोगाजी जेहा ।।
बाबा रामदेव ने छुआछुत के खिलाफ कार्य कर सिर्फ़ दलितों का पक्ष ही नही लिया वरन उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की। डाली बाई नामक एक दलित कन्या का उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण भी किया । यही कारण है आज बाबा के भक्तो में एक बहुत बड़ी संख्या दलित भक्तों की है । बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर नही अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों की सेवा भी की । यही नही उन्होंने पोकरण की जनता को भैरव राक्षक के आतंक से भी मुक्त कराया । प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ “मारवाड़ रा परगना री विगत” में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है- भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से सुना कर दिया था लेकिन बाबा रामदेव के अदभूत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर चला गया । बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल के दौरान और समाधी लेने के बाद कई चमत्कार दिखाए जिन्हें लोक भाषा में परचा देना कहते है । इतिहास व लोक कथाओं में बाबा द्वारा दिए ढेर सारे परचों का जिक्र है । जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलोकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए । बाबा के घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे तब उन्होंने बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन (सीपियाँ) मक्का ही छोड़ आए है और उनका प्रण है कि वे खाना उन सीपियों में खाते है तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराये नही जाने देते और इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया जो सीपी जिस पीर कि थी वो उसके सम्मुख रखी मिली । इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर स्वीकार किया ।
जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स . 1442 को जीवित समाधी ले ली । श्री बाबा रामदेव जी की समाधी संवत् 1442 को रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का हार्दिक तन मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया । रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा ‘प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना । प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहुँगा । इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधी ली ।’ आज भी बाबा रामदेव के भक्त दूर- दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है । वे अपने भक्तों के दु:ख दूर करते हैं, मुराद पूरी करते हैं. हर साल लगने मेले में तो लाखों की तादात में जुटी उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आकलन आसानी से किया जा सकता है ।
लेखक : ब्रजेश हंजावलिया – मन्दसौर (म.प्र.)