आज हम एक ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु पर चर्चा करने जा रहे है, जिसका संस्था की सफलता और असफलता मे महत्वपूर्ण योगदान होता है, किसी भी संस्था का संचालन उसके पदाधिकारियों द्वारा किया जाता है, उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य ही, संस्था की सफलता और असफलता को तय करते है, और साथ ही संस्था की सफलता उसके पदाधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्यों का ईमानदारी के साथ निर्वाह करने पर भी निर्भर करती है । ऐसी स्थिति में संस्था की कार्यप्रणाली क्या हो तथा उसके पदाधिकारियों की नियुक्यिॉ, उनके अधिकार, दायित्व का विभाजन कैसे किया जाये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ।
आज वर्तमान मे हमारे इर्द-गिर्द चलने वाली राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय सामाजिक संस्थाओं पर नजर डाले, तो हम पाते है कि, यह संस्थाऐं केवल कागजों पर नजर आती है, इनके कार्य पर ध्यान दे तो, पता चलता है कि, इनके पदाधिकारी काम तो कम करते है, लेकिन दिखावा ज्यादा करते हैं । हमे स्पष्ट नजर आता है कि, ज्यादातर पदाधिकारी, पदों की लोलपता के कारण पदों को मजबूती से पकड़ कर बैठे हैं और इन्हे पद का इतना लोभ है कि, इन्हें अपनी कोई कमी नजर नही आती है, तथा यह पदों के लोभ मे अन्धे हो गये हैं, और अपने पद को बचाने के चक्कर में, उन्होंने संगठन व समाज का नुकसान भी करना प्रारम्भ कर दिया है और इसी सिलसिले को बरकरार रखने के लिए, इन्होंने ऐसे लोगों को बढावा देना शुरू कर दिया है, जो समाज के पतन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है, और जो चाटुकार, चापलूस, तथा बड़े पदाधिकारियों के इर्द-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिन्न भिना रहे हैं, जैसे मक्खियॉ मिठाई पर भिन्न-भिनाती है ।
इसका प्रतिफल उन्हे सामाजिक संस्थाओं के पदो पर मनोनित करके दिया जा रहा है, जबकि इनका जनाधार देखा जाये, तो कही नजर नही आता है, यदि कोई नोकरी करता है तो, उसकी पहचान उसके विभाग से ज्यादा और कुछ नही है । ऐसे मनोनित पदाधिकारी, ऐसे नजर आ रहे है कि, जैसे उन्हे सीधे हवाई जहाज के बिना लेंड किये, पेराशूट से उतारा गया हो । ऐसे सीधे मनोनित पदाधिकारी, जब अपने समाज व अपने लोगों के बीच जाते है तो वह किसी मजाक से कम नजर नही आते है ।
ऐसे पदाधिकारीयों कि विश्वनीयता पर तो सदैव प्रश्न चिन्ह खड़ा ही रहा है, क्योकि वे जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए मनोनित किये गये है, वास्तविकता तो यह है कि, वे उनके सच्चे व मूल प्रतिनिधि नही है, क्योकि उनका चुनाव आम जनता ने नही किया है, उन्हे तो सीधा पेराशूट से उतारा गया है । ऐसे पेराशूट से उतरे पदाधिकारी तो, स्वंय सवालों के घेरे मे है ही, साथ ही वे समाज पर भी एक बड़ा प्रश्न खड़ा करते हैं । जिससे समाज की बदनामी होती है, चापलूस व चाटुकार लोगों को बढावा मिलता है और सच्चे समाज सेवको को ठेस लगती है, ऐसे मनोनित पदाधिकारी उनके विकास मे रोड़ा अटकाते हैं । जिससे समाज सच्चे प्रतिनिधित्व से वंचित हो जाता है । यही कमी आज हमारे देश की चुनाव प्रणाली मे है । जिसे हम संयुक्त निर्वाचन प्रणाली कहते है । जिसके लिए डॉ. अम्बेडकर ने कहा है कि ”संयुक्त निर्वाचन प्रणाली से दलाल, एजेण्ट पैदा होते है जो समाज के सच्चे प्रतिनिधि नही हो सकते है ।”
अब प्रश्न उठता है कि, अब हमे क्या करना चाहिये, मेरा मानना है कि जिस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व का चुनाव लोकतान्त्रिक तरिके से मताधिकार प्रणाली द्वारा किया जाता है, उसी प्रकार यदि प्रदेश स्तर पर भी किसी व्यक्ति विशेष को प्रदेशाध्यक्ष बनाया जाता है तो इसका चुनाव राष्ट्रीय पदाधिकारी की प्रत्यक्ष निगरानी मे किया जाना चाहिये । सबसे पहले उन लोगों से पूछना या राय लेना अतिआवश्यक है जिनके ऊपर उन्हे स्थापित किया जा रहा है, क्योकि आप यदि किसी को भी, किसी का प्रतिनिधि बना रहे हैं तो, आम जनता की राय लेना जरूरी है । यदि ऐसा नही किया जाता है तो, ऐसे पदाधिकारी की सफलता पर तुरन्त प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जायेगा और वह सफल भी नही होगा, क्योंकि किसी भी व्यक्ति की सफलता आम जनता मे निहित होती है । व्यक्ति सफल नही होता है, लोग उसे सफल बनाते है ।
मेरा मानना है कि राज्य स्तर पर किसी भी व्यक्ति को प्रदेशाध्यक्ष नियुक्त किया जाता है तो उसकी नियुक्ती के लिए प्रत्येक जिला के अध्यक्ष या प्रमुख पदाधिकारियों की राय लेकर लोकतान्त्रिक तरिके से ही नियुक्त किया जाना चाहिये । इसके लिए वोट सबसे बेहतर तरिका है, जिसमे कोई भी चाहे तो चुनाव लड़ सकता है तथा अपनी दावेदारी जता सकता है, जिससे एक सर्वमान्य स्वीकृत नेतृत्व समाज को मिलेगा और समाज मे राजनैतिक चेतना भी जागृत होगी, लोगों को अपने मत की किमत का भी पता चलेगी और ऐसा नेतृत्व भी सफल होगा । उसी प्रकार जिला स्तर पर भी नेतृत्व के लिये तहसील, स्थानीय स्तर पर जनाधार वाले व्यक्ति को जिलाध्यक्ष बनाया जाना चाहिये तथा समाज के चाटुकार, पदालोलुप्त लोगों को एक साईड मे रखा जाना चाहिये । सभी स्तर पर नेतृत्व का चुनाव लोकतान्त्रिक तरिके से, राष्ट्रपति प्रणाली द्वारा किया जाना चाहिये । मनोनयन प्रणाली का उपयोग केवल कार्यकारिणी, समितियों के गठन मे उपयोग किया जाना चाहिये । लेकिन राष्ट्रीय, राज्य, जिला, तहसील स्तर पर अध्यक्ष पदों की नियुक्ती लोकतान्त्रिक तरिके से की जानी चाहिये ।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि मनोनयन प्रणाली गैर लोकतान्त्रिक, समाजविरोधी, समाज को तोड़ने वाली, चाटुकार, चापलुस, पदालोलुप्त लोगों की प्रणाली है जिसमे ईमानदार, सच्चे समाज सेवक लोगों का स्थान नही है । इससे समाज का विकास सम्भव नही है । समाज के विकास के लिये जनाधार वाले व्यक्तियों को बढावा देना होगा और साथ वोट को खरीदने वाले असामाजिक तत्वो को रोकना होगा, तभी हमारा नेतृत्व सफल होगा ।
लेखक : कुशाल चन्द्र रैगर, एडवोकेट
M.A., M.COM., LLM.,D.C.L.L., I.D.C.A.,C.A. INTER–I,
अध्यक्ष, रैगर जटिया समाज सेवा संस्था, पाली (राज.)