सुआलाल जाटोलिया

धर्मगुरू स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी के कृपा पात्र शिष्‍य श्री सुआलाल जी जोटोलिया (तंवर) का जन्‍म 3 अगस्‍त 1933 ई. केा रैगरान बड़ावास, ब्‍यावर में पिता श्री हंसराज जी जाटोलिया के एक अत्‍यंत साधारण से परिवार में हुआ । इनका जीवन कुसुम कंटकों में विकसित हुआ । इनकी माता श्रीमती बिरजी देवी इनके बाल्‍यावस्‍था में ही इन्‍हें पिता के हवाले कर स्‍वर्ग सिधार गई । पिता का सम्‍बल भी इन्‍हें लम्‍बे समय तक नसीब नहीं हो सका और वे इनकी किशोरावस्‍था में चल बसे, ऐसे में इनका जीवन दूभर हो गया, और शिक्षा अध्‍ययन बीच में ही छोड़ना पड़ा । उन्‍हीं दिनों राष्‍ट्रीयता व प्रगतिशील सामाजिक विचारों के उन्‍नायक इनके शिक्षा गुरू श्री सिद्धेश्‍वर शास्‍त्री के सम्‍पर्क एवं मार्गदर्शन से इनमें न केवल शिक्षा प्राप्ति को जारी रखने का साहस जाग्रत हुआ बल्कि किशोरावस्‍था से ही स्‍वावलम्‍बन व आत्‍मविश्‍वास की भावना का भी विकास हुआ । किसी ने ठीक ही कहा है, ‘निहायत तंगगस्‍ती में जो पढकर थाम ले, मीना उसी का है’ । श्री शास्‍त्री जी के मार्गदर्शन में इन्‍होंने हाई स्‍कूल परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष बेसिक ट्रेनिंग पास करके ये राजकीय सेवा में अध्‍यापक बने । राजकीय सेवा में रहते हुए ही इन्‍होंने उत्तरोत्तर स्‍नातक, स्‍नातकोत्तर एवं बी.एड. उपाधियां हांसिल की । राजकीय सेवा में व्‍यस्‍त रहते हुए इनकी यह सफलता उनकी व इनके बाद की पीढ़ियों के उन नौजवानों के लिए प्रेरक, मार्गदर्शक उदाहरण है जो अपने कंधों पर बिना किसी खास जिम्‍मेदारी के होते हुए भी विद्यार्जन में ऐसी सफलता हांसिल नहीं कर पाते ।

आपके जीवन में काफी उतार चढ़ाव आये पर दृढ इच्‍छा शक्ति एवं उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर होते हुए कुछ कर गुजरने की धुन के धनी श्री सुआलाल जी के कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । अपने आत्‍मबल, सूझबूझ, साहस दृढ़ता व धैर्य पूर्वक काम करते हुए उन्‍होंने न केवल राजकीय कर्तव्‍यों का निष्‍ठापूर्वक निर्वहन किया बल्कि अपने परिवार जनों में सामाजिक मर्यादा व उत्तम संस्‍कारों का बीजारोपण एवं विकास किया । जैसा कि यह माना जाता है, कि हर सफल व्‍यक्ति की सफलता के पीछे महिला का सहयोग भी महत्‍वर्पण होता है, श्री सुआलाल जी की बहु-आयामी सफलता के पीछे भी इनकी धर्मपत्नि श्रद्धेय श्रीमती गंगा देवी के सहयोग को भी कम महत्‍वपूर्ण नहीं आंका जा सकता । उन्‍होंने न केवल घर को पूरी तरह सम्‍हाला, अपने पति के अध्‍ययनकाल और फिर बाहरवास के दौरान परिवार की दैनिक जिम्‍मेदारियां बखूबी निभाई अपितु इन्‍हें स्‍वाभाविक तौर पर पढ़ने, सोचने, समझने और प्रगतिपथ पर निरन्‍तर अग्रसरित होते रहने में अनुकरणीय सहयोग दिया जिससे ये इतनी ऊचाईयों को छू सके । अन्‍यथा अधिकांश व्‍यक्ति राजकीय सेवा में अपने कार्य-समय के बाद परिवार के मामूली छोटे-मोटे कार्यों में ही इतने उलझे रह जाते हैं कि कुछ और सोचने और करने के लिए समय ही नहीं बचता ।

अपने सम्‍पूर्ण जीवन काल में आपने अपने व्‍यक्तित्‍व में तुलसी दास के इस कथन को चरितार्थ किया है – ‘सरल सुभाव छुयौ छल नाहीं ।’ वे ‘सादा जीवन और उच्‍च विचार’ सिद्धांत की प्रतिमूर्ति हैं । सरलता, सौम्‍यता और सद्भाव के धनी श्री सुआलाल जी स्‍वभाव से ही सुचिता हैं । आपके व्‍यक्तित्‍व में अध्‍यात्मिक उदात्‍तता और सात्विकता का अनोखा संगम सुदृष्‍य है जो इनके समान स्थिति वाले व्‍यक्तियों में दुर्लभ होता है । उनके व्‍यक्तित्‍व की बात करते समय गीता का यह श्‍लोक याद आता है – सद्भावे साधुवावे च सदित्‍येत प्रयुज्‍यते । आपने सादा जीवन और उच्‍च विचार के सिद्धान्‍त को वास्‍तविक अर्थों में आत्‍मसात किया और अपने सम्‍पर्क में आने वाले अन्‍य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित किया । लम्‍बे समय तक राजकीय सेवा में रहते हुए प्रशासनिक कार्य एवं समाज सेवा में स्‍वार्थ इन्‍हें स्‍पर्श तक नहीं कर पाया । आपने अपने जीवन में अपने कर्तव्‍यों के प्रति सदा समर्पण भाव ही रखा और सरकारी सेवा और समाज में सुस्‍थापित सिद्धांतों के अनुरूप ही कार्य किया और सरकारी सेवा और समाज में सुस्‍थापित सिद्धांतों के अनुरूप ही कार्य किया और अब भी गिरते मानवमूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना के प्रयास में जब भी मौका मिलता है, समाज को लाभान्वित करने का अवसर नहीं चूकते ।

राजस्‍थान लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित प्रधानाध्‍यापक परीक्षा में उत्‍कृष्‍ट परिणाम का दिन इनकी प्रेरणा का श्रोत बना, जिसने इनके जीवन को एक अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण मोड़ दिया । शिक्षा विभाग की सेवा में रहते हुए ये सीधे प्रधानाध्‍यापक पद पर नियुक्त हुए, तदन्‍तर पदोन्‍नत्ति पाकर प्राचार्य पद को सुशोभित किया और इसी पद से सेवा निवृत्त हुए । अपने सेवाकाल में अध्‍यापक, प्रधानाध्‍यापक और फिर प्राचार्य पद पर जगह-जगह पदस्‍थापित रहते हुए इन्‍होंने अपनी उत्‍कृष्ठ कार्य प्रणाली, व्‍यवहार कुशलता व वाक्चातुर्य की छाप छोड़ी एवं समाज के विभिन्‍न वर्गों की प्रशंसा एवं विश्‍वास हांसिल करते रहे । इन्‍होंने न केवल अपने सरकारी कर्तव्‍य मात्र की निष्‍ठापूर्वक पालना की अपितु सभी जगह समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक अविस्‍मरणीय उदाहरण कायम किए ।

श्री सुआलाल जी ने समाज द्वारा सौंपे गये विभिन्‍न पदों पर रहते हुए निष्‍ठापूर्वक समाज की सेवा की । इनकी उत्‍कृष्‍ट योग्‍यता, निष्‍पक्षता, स्‍पष्‍टवादिता को स्‍वीकारते हुए इन्‍हें अखिल भारतीय रैगर महासभा का महामंत्री बनाय गया । समाज की निस्‍वार्थ सेवा, त्‍याग और मानवमूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना के प्रति इनके सार्थक प्रयासों एवं इनकी योग्‍यता के सम्‍मान स्‍वरूप भारत के तत्‍कालीन महामहिम राष्‍ट्रपति ज्ञानीजेल सिंह जी ने इन्‍हे ‘रैगर विभूषण’ के आंलकरण से ताम्रपत्र प्रदान कर सम्‍मानित किया ।

समाज में ऐसे व्‍यक्ति विरले ही मिलते हैं जो पूरे समय निष्‍ठा एवं सफलता पूर्वक के राजकीय सेवा से निवृत्त होकर राजनीति में भी उतने ही सफल रहें । अपने जीवन के उत्तरायण में राजकीय सेवा से निवृत्ति के पश्‍चात् श्री सुआलाल जी ब्‍यावर नगर परिषद में पार्षद चुने गये और अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में इन्‍होंने लगभग पूरे वार्ड में स्‍थाई महत्‍व के चिरप्रतीक्षित ऐसे कार्य करवाए जो आज भी इन्‍हें लोगों की प्रसंशा का पात्र बनाए हुए है । विचारशील लोगों ने आगे भी जनसेवा करते रहने का आग्रह किया, परन्‍तु राजनीति में घटते मुल्‍यों और स्‍वस्‍थ परम्‍पराओं के हृास के कारण इन्‍होंने अपने आप को राजनीति से अलग कर लिया और आम जन के हितार्थ, सामाजिक मूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना, लोगों में फैले अंध विश्‍वास, समाज में व्‍याप्‍त कुरूतियों के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए अपने आप को सत्‍संग भजन के प्रति समर्पित कर दिया और सत्‍संग के दौरान प्रवचनों को इसका माध्‍यम बनाया ।

इन्‍होंने गुरू महाराज ज्ञानस्‍वरूप जी से बाल्‍यकाल में ही दीक्षा ले ली थी । समय-समय पर स्‍वामी जी से भेंट हुआ करती थी, स्‍वामी जी सुप्रसिद्ध धर्म तत्‍वेत्ता, दार्शनिक, विद्वान, ईश्‍वर भक्त थे । उन्‍होंने श्री सुआलाल जी को तत्‍समय सुशिक्षित नवयुवक पाकर समय-समय पर आध्‍यात्मिक ज्ञान व भजन, सतसंग की ऐसी प्रेरणा दी जो इनके लिए सर्वथा अविस्‍मरणीय है । ”धन्‍य जन्‍म जगतीतल वासु परहित सर्व निछावर जासु” स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी समाज की उन इनी गीनी विभूतियों में से एक थे जिन्‍होंने समाज हित व परहित को अपने जीवन का लक्ष्‍य बनाया । ‘तमसो मां ज्‍योतिर्गमय’ उनका लक्ष्‍य था । उन्‍होंने सम्‍पूर्ण समाज को ज्ञान का प्रकाश दिया ।

स्‍वामी जी ने जीवन के किसी क्षेत्र को नहीं छोड़ा जो उनकी प्रतिभा की पहुँच में था । सौभाग्‍य से ऐसे कर्मयोगी, त्‍यागी महात्‍मा के शिष्‍य रहे श्री सुआलाल जी । यह पूज्‍य स्‍वामी जी के तप:पूत और तेजस्‍वी व्‍यक्तित्‍व के सानिध्‍य का ही परिणाम है कि आपने अपने सेवाकाल में जितनी सफलता और प्रसंशा प्राप्‍त की उससे कहीं अधिक सत्‍संग, प्रवचन, ज्ञानचर्चा, भजनों और वाणियों की आम जन को आसानी से समझ में आने वाली सरल से सरल भाषा में इस प्रकार सहज व्‍याख्‍या की कि ये लम्‍बे समय सन्‍यास ग्रहण किए सन्‍तों के भी प्रशंसा के पात्र हुए । सत्‍संगों में इन्‍हें न केवल गूढार्थ वाली वाणियों की व्‍याख्‍या करने के लिए प्रमुखता से अवसर दिया जाता है बल्कि अपने सरल किन्‍तु प्रभावोत्‍पादक प्रवचनों से ये आम जन के मन को छू लेने वाली बातों के द्वारा समाज सुधार के कार्य में भी अनवरत लगे हुए है । श्री सुआलाल जी ने न केवल टीका के रूप में यह साहित्‍य सृजन किया है, वे संगीत में भी निष्‍णांत हैं । उनकी गायन शैली अत्‍यंत मधुर, स्‍पष्‍ट एवं श्रोताओं को सुग्राह्म है । उन्‍होंने सत्‍संग की शाश्र्वत सार्थकता को हृदयंगम और आत्‍मसात किया और फिर उस शाश्र्वत सत्‍य को हृदय की समग्र निष्‍ठा से इस टिका में प्रस्‍तुत किया है ।

स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी द्वारा रचित ज्ञान भजन प्रभाकर में सम्मिलित भजन वाणियों की गहराई प्राय: आम जन की समझ के बाहर है । सुआलाल जी ने इसका सरल भावर्थ करके वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के आध्‍यात्मिक ज्ञानवर्धनक जो प्रयास किया है । बाह्म जगत का अन्‍तर्जगत से सम्‍बंध सत्‍संग के माध्‍यम से ही सम्‍भव है । अनुभूति प्रकाशित होने के लिए अनुभूति मांगती है – इसे ही दैहिक स्‍तर पर अनुभव कहते हैं । और मानसिक स्‍तर पर रचना प्रक्रिया । इस टीका के अध्‍ययन से यह स्‍पष्‍ठ है की श्री सुआलाल जी आध्‍यात्‍म, तत्‍वबोध और सत्‍संग की सार्थकता के पर्याप्‍त अनुभवी है । स्‍वानुभूति के रस में सुग्राह्म शब्‍दों को निमग्‍न कर जिस सरलता से इन्‍होंने यह टीका प्रस्‍तुत की है, वह आमजन के दिलोदिमाग में सत्‍संग की सार्थकता को पुन: प्रमाणित करने के लिए पर्याप्‍त है । मुझे इसमें सबसे बड़ी विशेषता यह लक्षित हुई कि इसमें कहीं भी व्‍यर्थ शबदाडम्‍बर एवम् आत्‍मश्‍लाघ नहीं है । मिश्री के कूंजे की भांति सम्‍पूर्ण टीका अत्‍यंत मधुर और प्रभावक है । यह टीका साहित्‍य, संगीत और अध्‍यात्‍म का ऐसा संगम है जो न केवल साहित्‍यविदों, संतों, चिन्‍तकों, जनसेवकों के लिए सहायक सिद्ध होगी अपितु इसमें जीवन के प्रत्‍येक पक्ष का ऐसा समुज्‍जवल स्‍वरूप प्रस्‍तुत हुआ है कि वह आम जन के लिए प्रेरणा का श्रोत और अपने जीवन को सार्थक बनाने का माध्‍यम बन सकेगी ।

श्री सुआलाल जी के द्वारा यह टीका लिखने का प्रमुख कारण स्‍वामी जी के प्रति आस्‍था समाज कल्‍याण तथा समाज की सुव्‍यवस्‍था के लिए गुरूजनों, अपने बड़ों का आदर, विद्वानों का सम्‍मान, माता-पिता के प्रति श्रद्धा, छोटों के प्रति प्रेम है । श्री सुआलाल जी एक शिक्षक, राजनीतिज्ञ, सत्‍संगी, साहित्‍यकार, उत्‍कृष्‍ट काव्‍यगायक, आध्‍यात्‍म चिन्‍तक, समाज सुधारक के साथ-साथ एक सुहृदय मानुष भी हैं । इतनी विशिष्‍टताएं एक ही व्‍यक्ति में होना उनके लिए सौभाग्‍य की बात है तो हमारे समाज के लिए गर्व की । श्री सुआलाल जी के व्‍यक्तित्‍व और उनके द्वारा इस टीका की आत्‍मविभोर प्रस्‍तुती ने हमारे रैगर समाज को गौरवान्वित किया है । आपकी वृद्धावस्‍था से अप्रभावित रह कर आपकी सृजनशील यात्रा समृद्धतर हो, आप सत्‍संग की सार्थकता को और अधिक अनुप्रमाणित करते रहें, यही मन: कामना है !

महन्‍त सुआलाल तंवर (जाटोलिया) : (सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)
सुरजपोल गेट, रैगरान बड़ावास, ब्‍यावर, जिला अजमेर, पिन कोड – 305901
मोबाइल नम्बर 07597875327, घर – 01462-251017

परिचय अनुवादक
एम.एल. भट्ट,
सेवानिवृत्त आर.ए.एस. अधिकारी,
बी-21, सरस्‍वती नगर, जोधपुर

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