रैगर जाति का विस्तार राजस्थान के पूर्वी भाग यानी भरतपुर, धौलपुर, करौली व सवाई माधोपुर, अलवर, दौसा का निकटवर्ती क्षेत्र अर्थात मथुरा से लेकर चम्बल नदी के पास का डांग क्षेत्र तथा इनसे सटा हुआ उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के सिमावर्ती भाग से हुआ है। यह भी पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र व जाति का मुख्य कार्य रंगत अर्थात् रेणी ही था। अब प्रशन यह उठता है कि ये जाति अपने मूल क्षेत्र को छोड़कर राजस्थान के अन्य भागों में सुदूर तक कैसे गई। इसके सम्भावित मूल कारण निम्न हैं-
1. भौगोलिक- आगरा, मथुरा व भरतपुर आदि क्षेत्रों में वर्षा अत्यधिक होती है जिसके कारण यमुना व उसकी सहायक बाणगंगा, चम्बल, गंभीर आदि नदियों में बाढ़ आती रहती है, इसके अतिरिक्त धौलपुर से सवाई माधोपुर तक का डांग क्षेत्र चम्बल के बीहड़ों का क्षेत्र है । हो सकता है सुरक्षा की दृष्टि से ये उधर से चल दिये हो ।
2. सामाजिक कारण- भरतपुर क्षेत्र में जाट जाटव संघर्ष बहुत पहले से ही चला आ रहा है । इसमें रैगर भी पिसते ही होंगे । इसके अतिरिक्त डांग क्षेत्र भी मीणा गूजर बाहुल्य है । ये अब तक भी प्राय: दलितों पर अत्याचार करते रहते हैं । इसके अतिरिक्त यह क्षेत्र डाकुओं की शरणस्थली है । अत: सुरक्षा हेतु ये अन्यत्र चल दिये हों ।
3. आर्थिक कारण- रैगर जाति का अपने मूल क्षेत्र में पलायन का सबसे मुख्य कारण आर्थिक ही है। रोजगार की तलाश में राजस्थान के मरु प्रदेश के लोग देश के विभिन्न क्षेत्रों तथा विदेशों में जाकर धनोपार्जन कर रहे हैं । इसी प्रकार रैगर जाति भी आई है । रैगरों का मुख्य कार्य रंगत करना है और इस रंगत से वे चरसों का उत्पादन बहुत करते थे । चरस व चमड़े के अन्य सामान कृषि कार्य के लिये बहुत उपयोगी व अत्यावश्यक होते हैं । कृषि विस्तार के कारण कुवों की खुदाई अधिक होने लगी और कुवों के विस्तार से चरसों की मांग भी बढ़ने लग गई । इससे इन लोगों का उद्योग व्यापार बढ़ने लगा और जिस क्षेत्र में अधिक माँग होती उसकी पूर्ति करेन के लिये ये उधर ही जाकर बसने लग गये । अत: इनका मूल निवास से इधर दूर-दूर तक बसने का मुख्य कारण यही आर्थिक ही है ।
हमारे पूर्वज जो रंगिया थे पूर्वी राजस्थान व डांग क्षेत्र से आगे बढ़ कर पहले ढूंढाड़ क्षेत्र, टोंक, अजमेर, मेरवाड़ा, तोरावाटी, शेखावटी आदि क्षेत्रों में घने रूप में बस गये । इस क्षेत्र में हर छोटे बड़े गाँव, कस्बे व शहर में रैगर बस्ती है । यहाँ किधर भी दस कोस क्षेत्र में बीस रैगर बस्ती मिल जायेगी जिनमें 50 से लेकर 500 परिवार तक एक जगह बसे होंगे ।
इनकी आबादी कस्बाई क्षेत्र में अधिक है तथा छोटे गाँव ढाणियों में कुछ कम है । इसी प्रकार सम्भवत: डांग व इसके पास वाले दक्षिण पूर्वी क्षेत्र (मध्य प्रदेश) से ये लोग हाडोती (कोटा, बूंदी, झालावाड़) तथा मेवाड़ क्षेत्र में भी फैल गये हों । इधर बांसवाड़ा, डूंगरपुर आदि कुछ क्षेत्र को छोड़कर लगभग दक्षिण पूर्वी राजस्थान में सभी जगह रैगर जाति का पूर्ण विस्तार है । अब रैगर लोग अपने मूल स्थान में से डीग में ही अधिक आबाद है, भरतपुर में कुछ नाम मात्र के हैं इसके अलावा समस्त उत्पत्ति क्षेत्र को छोड़ आये हैं । अब हमारा क्षेत्र अलवर का दक्षिण पश्चिमी कुछ भाग फिर बसवा, भांडारेज, गंगापुर, लालसोट, बोली व सवाई माधोपुर व उसके इधर के क्षेत्र ही है इससे उधर नहीं । इधर गंगापुर हिण्डौन साइड में अब भी कुछ स्थानों पर रैगर जाटव पास-पास में रहते हैं । उनमें भाईचारा भी है तथा अब से एक दो पीढ़ी पहले तक रिश्तेदरियाँ भी होती थी जिनके वंशज बेटे पोते मौजूद हैं । रैगरों का इधर विस्तार होने से अब वे अपनी रैगर जाति में ही रिश्ता करने लग गये ।
फिर जैसे-जैसे इनका कार्य व्यवसाय बढ़ता गया और चरस की माँग बढ़ती गई तो ये अरावली पर्व के उस पार उत्तरी पश्चिमी राजस्थान में भी चले गये और उधर भी बस गये । किन्तु उधर इनकी आबादी कम व बहुत सीमित स्थानों पर ही है । यहाँ पर बड़े कस्बों में ही इन्होंने अपने रंगत के कारखाने कायम किये । झुंझुनू जिले के कुछ स्थानों पर तो ठीक ठाक है फिर चूरू में कम होते चले, चरू रतनगढ़, राजगढ़, सुजानगढ़ में, हनुमानगढ़, जिले में नोहर भादरा आदि में, गंगानगर जिले में गंगानगर व एक दो अन्य स्थानों पर बीकानेर जिले में नोखा, लूणकरणसर, शिवबाड़ी, डूंगरगढ़, कोलायत आदि मुख्य स्थानों पर, नागौर में भी नागौर नावां, लूंणवा, मारोठ, खाटड़ी, छोटी बड़ी खाटू, मेड़ता, पर्वतसर आदि कुछ गाँवों में ही है, पाली में पीपाड़, सोजत जेतारण आदि मुख्य-मुख्य स्थानों पर जोधपुर में भी कुछ ग्रामीण स्थानों पर ही बाड़मेर में बाड़मेर बालोतरा आदि में व आसपास तथा भीनमाल आबू आदि कुछ सीमित स्थानों पर ही आबाद है । जोधपुर व बीकानेर शहरों में तो शायद पहले रैगर बस्तियाँ भी नहीं थीं । अब शिवबाड़ी नगर परिषद में आने व जोधपुर में सिंध से आकर नागोरी गेट पर जटिया बस्ती बसने से रैगर आबाद हुए है । कहने का तात्पर्य यह है कि अरावली के पूर्वी क्षेत्र में आबादी का घनत्व बहुत अधिक तथा पश्चिमी क्षेत्र में कम होता हुआ चला गया । जैसलमेर जिले में तो शायद रैगर बस्तियाँ हैं ही नहीं बाड़मेर, जालोर व सिरोही जिलों में भी बहुत ही सीमित जगहों पर रैगर जाति की आबादी है ।
रैगर बन्धु सबसे पहले जयपुर अलवर जिलों की सीमा के आसपास से यानी बाल-सताईसा व कुंडला अर्थात् बसवा धीरोडा, बल्देवगढ़, राजगढं, प्रतापगढ़, जमवारामगढ़, ओधी थौलाई, मैड़, अचरोल, मनोहरपुर आदि स्थानों से देहली की तरफ गये । वहाँ देहली में बसे सभी रैगर बंधुओं की बोली भाषा वेशभूषा व आचार विचार आज भी वहीं के मिलते हैं । किन्तु अब परिवर्तन हो गया है । इसके पश्चात् देहली के आसपास हरियाणा व पंजाब में, देहली और जयपुर क्षेत्र से अमृतसर, भटिण्डा, हिसार, कोटकपुरा, अबोहर, डबेवाली, लुधियाना व उससे आगे जम्मू व हिमाचल प्रदेश में भी कई जगह जाकर बस गये । आजादी से पहले हजारों परिवार लाहौर में भी रहते थे जो बाद में देहली व अन्य स्थानों पर आ गये । पंजाब, हरियाणा में बसे कई परिवार तो वर्षा ऋतु में इधर जयपुर, सीकर साईड के अपने गाँवों में आकर सगाई-विवाह जामणां, पेहरावणी व पुराने नुकते तक करके जाते हैं ।
अजमेर (मेरवाड़ा) व मारवाड़ साईड के लोग सिंध प्रदेश की ओर गये और हैदराबाद ठंडू नवाबशाह व आसपास में बस गये । कुछ लोग करांची में भी थे । श्री भोलाराम जी तोणगरिया तो हैदराबाद नगर पालिका के कौन्सलर भी रहे थे तथा श्री ज्ञानस्वरूप जी महाराज का आश्रम भी ठंडू में ही था किन्तु पाकिस्तान बन जाने के कारण ये लोग भारत में वापिस आ गये और जोधपुर, ब्यावर, अजमेर, देहली तथा मुम्बई में ठक्कर बापा कालोनी में विस्थापित हो गये ।
दक्षिण में गुजरात में अहमदाबाद, महसाणा, पालनपुर, कलोल सिद्धपुर, सूरत व बड़ोदा तक में ये चले गये । ये अधिकतर मेवाड़ व मारवाड़ से ही गये हैं कुछ लोग जयपुर साईड से भी गये हैं । इसी प्रकार नीमच, मन्दसौर, उज्जैन, शिवपुरी, इन्दौर आदि मध्यप्रदेश के कुछ स्थानों पर जाकर बस गये हैं । ये मेवाड़ व हाड़ौती क्षेत्र के हैं कुछ जयपुर क्षेत्र के व दौसा के भी गये हैं ।
पूर्व की ओर रैगरों की काई विशष बढ़ोतरी नहीं हुई हैं । कुछ लोग बरेली व फरुखाबाद आगरा में रोजगार हेतु गये हैं । हाँ अब कुछ नौकरी पेशा लोग अवश्य गये हैं जो अस्थाई हैं ।
इन उपरोक्त क्षेत्रों के अतिरिक्त महाराष्ट्र में मुम्बई में ठक्करबापा कॉलोनी (चिम्बूर) में सिंध से आये हुए रैगर बन्धु बस गये है । इनके अतिरिक्त कुछ लोग झुंझुनू जिले के कुछ गाँवों के व बीकानेर के कुछ परिवार एवं कुछ अजमेर साईड के तथा कुछ परिवार कोटा जयपुर साईड के भी आकर स्थाई रूप से बस गये हैं ।
इनके आलावा रैगर जाति की कहीं भी कोई बस्ती नहीं है वैसे नोकरी के कारण व रोजगार सम्बन्धी अन्य कार्यों से कुछ इक्के-दुक्के लोग भारत के कुछ श्हरों में चले गये हैं और कुछ स्थाई रूप से भी रहने लग गये हैं । अब तो आपको मुम्बई के अतिरिक्त कलकत्ता, चैन्नई, बैंगलोर, हैदराबाद, कानपुर आदि महानगरों में भी रैगर भाई मिल जायेंगे । कुछ तो अब इंगलैण्ड, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाड़ा आदि विदेशों में भी पहुँच गये हैं । श्री भँवरलाल जी खटनावलिया छोटी खाटू (नागोर) निवासी अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में स्थाई रूप से बसे हुए है जो अरबपति हैं ।
(साभार – रूपचन्द जलुथरिया कृत ‘रैगर जाति का इतिहास’)
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