गंगा जी के पृथ्वी पर आने की एक कथा प्रचलित है । कथा इस प्रकार है- भगवान राम के कुल में एक राजा हुए थे, सगर । वे पुत्रहीन थे । सगर की पटरानी का नाम केशिनी था जो कि विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी । केशिनी रूपवती, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी । सगर की दूसरी रानी का नाम था सुमति जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी । महाराज सगर अपनी दोनों रानियों को लेकर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में गए और पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे । उनकी तपस्या से महर्षि भृगु प्रसन्न हुए और उन्हें वर दिया कि तुम्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी । दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे । कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें । केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की भगिनी सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की ।
कुछ काल के पश्चात् रानी केशिनी ने असमञ्ज नामक पुत्र को जन्म दिया । रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले । उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया । कालचक्र व्यतीत होते गया और सभी राजकुमार युवा हो गये । सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था । इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया । असमञ्ज के अंशुमान नाम का एक पुत्र था । अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था । एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया । शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया ।
राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरीतिमायुक्त भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया । फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे-पीछे भेज दिया । भारतवर्ष के सारे राजा सगर को चक्रवर्ती मानते थे, पर देवों के राजा इंद्र इनसे ईर्ष्या करते थे । यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण किया और उस घोड़े को चुरा लिया । इन्द्र ने घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में चुपके से बांध दिया । घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ । पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसी ने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया । उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये । खोदते-खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे । उनके इस नृशंस कृत्य के विषय में देवताओं ने ब्रह्मा जी को बताया तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं । पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल ऋषि पर है इसलिये वे इस विषय में अवश्य ही कुछ न कुछ करेंगे । पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी । क्रुद्ध सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो । पाताल में घोड़े को खोजते-खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये । उन्होंने देखा कपिलदेव तपस्या में लीन हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है । उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े । राजा सगर के इन पुत्रों के कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई । उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया ।
बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिलने पर महाराज सगर ने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर अपने चाचाओं के द्वारा बनाए गए मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा । मार्ग में मिलने वाले पूजनीय ऋषि मुनियों का यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था । अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे अत्यन्त क्षोभ हुआ । उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कोई भी जलाशय दृष्टिगत नहीं हुआ । तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी । उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि हे पितामह! मैं अपने चाचाओं का तर्पण करना चाहता हूँ । समीप में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये । यदि आपको इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानकारी है तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें । गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार किस प्रकार से इन्द्र ने घोड़े को चुरा कर कपिल मुनि के पास छोड़ दिया था और उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया । इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है । अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके । गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृत्तान्त सुनाया । महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी ।
महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे । अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये । दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और वे स्वर्ग सिधार गए । इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये । पर उन्हें भी सफलता नहीं मिली । भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई । इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे । उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा । भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो । ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी । गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है । इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा । इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये ।
भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा । वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया । अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे । इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा । उस समय गंगाजी सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं । गंगा का यह अहंकार महादेव जी से छुपा न रह सका । महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया । गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं । गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की । भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा । छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं । गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं । सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली । जिधर-जिधर भगीरथ जाते थे, उधर-उधर ही गंगा जी जाती थीं । स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे । जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था । चलते-चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे । गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं । इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया । यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया । तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगी । इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं । उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये । इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।
कपिल आश्रम में गंगा जी के पहुँचने के पश्चात् ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर भगीरथ को वरदान दिया कि तेरे पुण्य के प्रताप से प्राप्त इस गंगाजल से जो भी मनुष्य स्नान करेगा या इसका पान करेगा, वह सब प्रकार के दुःखो से रहित होकर अन्त में स्वर्ग को प्रस्थान करेगा । जब तक पृथ्वी मण्डल में गंगा जी प्रवाहित होती रहेंगी तब तक उसका नाम भागीरथी कहलायेगा और सम्पूर्ण भूमण्डल में तेरी कीर्ति अक्षुण्ण रूप से फैलती रहेगी । सभी लोग श्रद्धा के साथ तेरा स्मरण करेंगे । यह कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को लौट गये । भगीरथ ने पुनः अपने पितरों को जलांजलि दी । ओर इस प्रकार गंगा माता का पृथ्वी पर अवतरण हुआ । गंगा माता के पृथ्वी पर अतरण कराने में गगीरथ जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही हम भगीरथ जी को कोटी-कोटी प्रणाम करते है । सगर वंशी (सूर्यवंशी) हम रैगर सदा आपके आभारी रहेंगे ।
गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक जिस तीर्थ से भी गंगा प्रवाहित होती है । वहां आने वाले तीर्थ यात्री गंगा के प्रति आस्था के कारण वापसी में अपने साथ पवित्र गंगाजल ले जाना नहीं भूलते । सनातन परंपराओं में गंगाजल का उपयोग धार्मिक, मांगलिक कर्मों में पवित्रता के लिए किया जाता है । शिशु जन्म या मृत्यु के बाद के कर्मों में इसी गंगा जल से गृह शुद्धि की परंपरा है । साथ ही मृत्यु के निकट होने पर व्यक्ति को गंगा जल पिलाने और दाह संस्कार के बाद उसकी राख को गंगा के पवित्र जल में प्रवाहित करने की भी पंरपरा रही है । क्योंकि धार्मिक मान्यताओं में गंगा पापों का नाश क र मोक्ष देने वाली देव नदी मानी गई है । किंतु गंगा मात्र धार्मिक दृष्टि से ही पवित्र नहीं है, बल्कि विज्ञान ने भी गंगा के जल को पवित्र माना है । जानते हैं गंगा के जल की पवित्रता के पीछे छुपे वैज्ञानिक तथ्यों को।
गंगा जल की वैज्ञानिक खोजों ने साफ कर दिया है कि गंगा जल का धार्मिक महत्व ही नहीं है वरन इसका वैज्ञानिक महत्व भी है । क्योंकि गंगा अपने उद्गम स्थल से लेकर मैदानों में आने तक प्राकृतिक स्थानों, वनस्पतियों से होकर प्रवाहित होती है । अत: इस जल में औषधीय गुण पाए जाते हैं । इसके साथ ही वैज्ञानिक अनुसंधानों में यह पाया गया है कि गंगाजल में कुछ ऐसे जीव होते हैं जो जल को प्रदूषित करने वाले विषाणुओं को पनपने ही नहीं देते बल्कि उनको नष्ट भी कर देते हैं । जिससे गंगा का जल लंबे समय तक प्रदूषित नहीं होता है । इस प्रकार के गुण अन्य किसी नदी के जल में नहीं पाए गए हैं । इस तरह गंगा जल धर्म भाव के कारण मन पर और विज्ञान की नजर से तन पर सकारात्मक प्रभाव देने वाला है ।
माँ गंगा को हिन्दू धर्म और संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है । गंगा की घाटी में ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली है । जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ । इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ । प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ जहाँ से गणराज्यों की परंपरा विश्व में पहली बार प्रारंभ हुई । यहीं भारत का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया ।
गंगा उत्तरांचल में गंगोत्री से निकलकर उत्तर और पूर्वी भारत के विशाल भू-भाग को सींचती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है । यह देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है । गंगा भारत की पवित्र नदियों में से एक है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है ।
गंगा का आरम्भ अलकनन्दा व भागीरथी नदियों से होता है । गंगा की प्रधान शाखा भागीरथी है जो हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर भी है । गोमुख, गंगोत्री शहर से 19 कि.मी. उत्तर में है । भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रुप में पहचानी जाती है । इस प्रकार २०० कि.मी. का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती है ।
हरिद्वार गंगा जी के अवतरण का पहला मैदानी तीर्थ स्थल है । वैदिक काल से हरिद्वार की महत्ता बनी हुई है । देवगण और मनुष्य गण अपने सांसारिक नियमों की शुद्धि के लिए तथा पितरों के तर्पण श्राद्ध के लिए हरिद्वार के हरि की पैडी घाट पर स्नान दान का पुण्य प्राप्त करके मोक्ष की कामना करते आए हैं । हरिद्वार का गंगा जल समस्त भारत के गंगा जल से शुद्ध और पवित्र माना गया है । हरिद्वार के बाद गंगाजी उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में पहुंचती है । गंगा किनारे बसा हुआ गढ़मुक्तेश्वर भी पवित्र तीर्थ स्थल है ।
गढ़ मुक्तेश्वर का जिक्र भगवत पुराण और महाभारत में किया गया है । यह जगह हस्तिनापुर राज्य में आती थी और पांडवों ने यहां एक किला भी बनवाया था । इस जगह का नाम मुक्तेश्वर महादेव के मंदिर के नाम पर रखा गया है । यहां स्थित चार मंदिरों में मां गंगा की पूजा होती है । गढ़ मुक्तेश्वर के बाद गंगा कन्नौज पहुंचती है । चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में चीनी यात्री फाहयान और राजा हर्षवर्धन के समय में ह्वेनसॉन्ग कन्नौज आए थे । कन्नौज से गंगा कानपुर पहुंचती है । माना जाता है कि भगवान राम के सीता को वनवास पर भेजने के बाद वह यहां स्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आकर रही थीं । यहीं उन्होंने लव और कुश को जन्म दिया और बाद में धरती में समा गईं । गंगा किनारे बसे इस शहर के निवासी हर साल होली के बाद गंगा मेला भी मनाते हैं, जो यहां का खास मेला है । कानपुर के बाद गंगा संगम के शहर इलाहाबाद पहुंचती है ।
इलाहाबाद या तीर्थराज प्रयाग पवित्र तीर्थ स्थल है । यहां गंगा नदी में यमुना आकर मिलती है । प्राचीन समय में यहां सरस्वती भी इन दोनों नदियों में मिलती थी, लेकिन अब वह लुप्त हो गई है । प्रयाग में कुंभ के अवसर पर दूर-दूर से श्रद्धालु स्नान करने के लिए आते हैं । माना जाता है कि इसी शहर में भगवान ब्रह्मा ने वेदों की रचना की थी । संगम के निकट स्थित लेटे हुए हनुमान जी का मंदिर अपनी तरह का अनोखा मंदिर है । प्रयाग से गंगा धार्मिक महत्व रखने वाले शहर वाराणसी या काशी या बनारस पहुंचती है ।
काशी विश्व के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है । इसे भारत की धार्मिक राजधानी भी कहा जाता है । माना जाता है कि इस शहर की स्थापना भगवान शिव ने की थी । ऐसे में इसका जिक्र तमाम धार्मिक ग्रंथों में मिलता है । काशी विश्वनाथ का मंदिर पूरे देश में प्रसिद्ध है, जो देश भर में मौजूद बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है । इसके दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं । इसके अलावा, यहां के दशावमेध घाट और मणिकर्णिका घाट भी काफी प्रसिद्ध हैं । मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यह यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है ।
वाराणसी से मिर्जापुर, पाटलिपुत्र, भागलपुर होते हुए गंगा पाकुर पहुँचती है । भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होती है । पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है-भागीरथी और पद्मा। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती फरक्का बैराज से छनते हुई बंगला देश में प्रवेश करती है । यहाँ से गंगा का डेल्टाई भाग शुरू हो जाता है । मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है ।
हुगली नदी कोलकाता, हावड़ा होते हुए सुंदरवन के भारतीय भाग में सागर से संगम करती है । पद्मा में ब्रह्मपुत्र से निकली शाखा नदी जमुना नदी एवं मेघना नदी मिलती हैं । अंततः ये ३५० कि.मी. चौड़े सुंदरवन डेल्टा में जाकर बंगाल की खाड़ी में सागर-संगम करती है । यहां गंगा और बंगाल की खाड़ी के संगम पर प्रसिद्ध तीर्थ गंगा-सागर-संगम हैं । यहां मकर संक्रांति पर बहुत बड़ा मेला लगता है । कहा जाता है सारे तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार। अपने जीवन में व्यक्ति एक बार अवश्य गंगा सागर की यात्रा की अभिलाषा रखता है ।
ॐ जय गंगे माता, श्री गंगे माता ।
जो नर तुमको ध्याता, मनवांछित फल पाता ॥
जय गंगे माता ॥1॥
चन्द्र सी जो तुम्हारी जल निर्मल आता ।
शरण पड़े जो तेरी, सो नर तर जाता ॥
जय गंगे माता ॥2॥
पुत्र सगर के तारे सब जग को ज्ञाता ।
कृपा दृष्टि तुम्हारी त्रिभुवन सुख दाता ॥
जय गंगे माता ॥3॥
एक ही बार जो तेरी शरणागति आता ।
यम की त्रास मिटाकर परमगति पाता ॥
जग गंगे माता ॥4॥
आरती मात तुम्हारी जो जन नित्य गाता ।
अर्जुन वहीं सहज में मुक्ति को पाता ॥
जय गंगे माता ॥5॥
ओउम जय गंगे माता ।
दोहा
जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग ॥
चौपाई
जय जग जननि अघ खानी, आनन्द करनि गंग महरानी ।
जय भागीरथि सुरसरि माता, कलिमल मूल दलनि विखयाता ।।
जय जय जय हनु सुता अघ अननी, भीषम की माता जग जननी ।
धवल कमल दल मम तनु साजे, लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे ।।
वाहन मकर विमल शुचि सोहै, अमिय कलश कर लखि मन मोहै ।
जडित रत्न कंचन आभूषण, हिय मणि हार, हरणितम दूषण ।।
जग पावनि त्रय ताप नसावनि, तरल तरंग तंग मन भावनि ।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, तिहुं ते प्रथम गंग अस्नाना ।।
ब्रह्म कमण्डल वासिनी देवी श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी ।
साठि सहत्र सगर सुत तारयो, गंगा सागर तीरथ धारयो ।।
अगम तरंग उठयो मन भावन, लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन ।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, धरयौ मातु पुनि काशी करवट ।।
धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, तारणि अमित पितृ पद पीढी ।
भागीरथ तप कियो अपारा, दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा ।।
जब जग जननी चल्यो लहराई, शंभु जटा महं रह्यो समाई ।
वर्ष पर्यन्त गंग महरानी, रहीं शंभु के जटा भुलानी ।।
मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, तब इक बूंद जटा से पायो ।
ताते मातु भई त्रय धारा, मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा ।।
गई पाताल प्रभावति नामा, मन्दाकिनी गई गगन ललामा ।
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनि, कलिमल हरणि अगम जग पावनि ।।
धनि मइया तव महिमा भारी, धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी ।
मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, धनि सुरसरित सकल भयनासिनी ।।
पान करत निर्मल गंगाजल, पावत मन इच्छित अनन्त फल ।
पूरब जन्म पुण्य जब जागत, तबहिं ध्यान गंगा महं लागत ।।
जई पगु सुरसरि हेतु उठावहिं, तइ जगि अश्वमेध फल पावहिं ।
महा पतित जिन काहु न तारे, तिन तारे इक नाम तिहारे ।।
शत योजनहू से जो ध्यावहिं, निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं ।
नाम भजत अगणित अघ नाशै, विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै ।।
जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, धर्म मूल गंगाजल पाना ।
तव गुण गुणन करत सुख भाजत, गृह गृह सम्पत्ति सुमति विराजत ।।
गंगहिं नेम सहित निज ध्यावत, दुर्जनहूं सज्जन पद पावत ।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै, रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै ।।
गंगा गंगा जो नर कहहीं, भूखे नंगे कबहूं न रहहीं ।
निकसत की मुख गंगा माई, श्रवण दाबि यम चलहिं पराई ।।
महां अधिन अधमन कहं तारें, भए नर्क के बन्द किवारे ।
जो नर जपै गंग शत नामा, सकल सिद्ध पूरण ह्वै कामा ।।
सब सुख भोग परम पद पावहिं, आवागमन रहित ह्वै जावहिं ।
धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी ।।
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, सुन्दरदास गंगा कर दासा ।
जो यह पढ़ै गंगा चालीसा, मिलै भक्ति अविरल वागीसा ।।
दोहा
नित नव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान ।
अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमान ॥
सम्वत् भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र ।
पूण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र ॥
ॐ नमः शिवायै गंगायै, शिवदायै नमो नमः ।
नमस्ते विष्णु-रुपिण्यै, ब्रह्म-मूर्त्यै नमोऽस्तु ते ।।
नमस्ते रुद्र-रुपिण्यै, शांकर्यै ते नमो नमः ।
सर्व-देव-स्वरुपिण्यै, नमो भेषज-मूर्त्तये ।।
सर्वस्य सर्व-व्याधीनां, भिषक्-श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते ।
स्थास्नु-जंगम-सम्भूत-विष-हन्त्र्यै नमोऽस्तु ते ।।
संसार-विष-नाशिन्यै, जीवानायै नमोऽस्तु ते ।
ताप-त्रितय-संहन्त्र्यै, प्राणश्यै ते नमो नमः ।।
शन्ति-सन्तान-कारिण्यै, नमस्ते शुद्ध-मूर्त्तये ।
सर्व-संशुद्धि-कारिण्यै, नमः पापारि-मूर्त्तये ।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिन्यै, भद्रदायै नमो नमः ।
भोगोपभोग-दायिन्यै, भोग-वत्यै नमोऽस्तु ते ।।
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु, स्वर्गदायै नमो नमः ।
नमस्त्रैलोक्य-भूषायै, त्रि-पथायै नमो नमः ।।
नमस्त्रि-शुक्ल-संस्थायै, क्षमा-वत्यै नमो नमः ।
त्रि-हुताशन-संस्थायै, तेजो-वत्यै नमो नमः ।।
नन्दायै लिंग-धारिण्यै, सुधा-धारात्मने नमः ।
नमस्ते विश्व-मुख्यायै, रेवत्यै ते नमो नमः ।।
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु, लोक-धात्र्यै नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते विश्व-मित्रायै, नन्दिन्यै ते नमो नमः ।।
पृथ्व्यै शिवामृतायै च, सु-वृषायै नमो नमः ।
परापर-शताढ्यै, तारायै ते नमो नमः ।।
पाश-जाल-निकृन्तिन्यै, अभिन्नायै नमोऽस्तु ते ।
शान्तायै च वरिष्ठायै, वरदायै नमो नमः ।।
उग्रायै सुख-जग्ध्यै च, सञ्जीविन्यै नमोऽस्तु ते ।
ब्रह्मिष्ठायै-ब्रह्मदायै, दुरितघ्न्यै नमो नमः ।।
प्रणतार्ति-प्रभञजिन्यै, जग्मात्रे नमोऽस्तु ते ।
सर्वापत्-प्रति-पक्षायै, मंगलायै नमो नमः ।।
शरणागत-दीनार्त-परित्राण-परायणे ।
सर्वस्यार्ति-हरे देवि! नारायणि ! नमोऽस्तु ते ।।
निर्लेपायै दुर्ग-हन्त्र्यै, सक्षायै ते नमो नमः ।
परापर-परायै च, गंगे निर्वाण-दायिनि ।।
गंगे ममाऽग्रतो भूया, गंगे मे तिष्ठ पृष्ठतः ।
गंगे मे पार्श्वयोरेधि, गंगे त्वय्यस्तु मे स्थितिः ।।
आदौ त्वमन्ते मध्ये च, सर्व त्वं गांगते शिवे!
त्वमेव मूल-प्रकृतिस्त्वं पुमान् पर एव हि ।।
गंगे त्वं परमात्मा च, शिवस्तुभ्यं नमः शिवे ।।
।। फल-श्रुति ।।
य इदं पठते स्तोत्रं, श्रृणुयाच्छ्रद्धयाऽपि यः ।
दशधा मुच्यते पापैः, काय-वाक्-चित्त-सम्भवैः ।।
`रोगस्थो रोगतो मुच्येद्, विपद्भ्यश्च विपद्-युतः ।
मुच्यते बन्धनाद् बद्धो, भीतो भीतेः प्रमुच्यते ।।
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