रैगर जाति का इतिहास सदियों पुराना होने के कारण इनकी उत्पत्ति के विषय में आज तक किसी भी इतिहासकार ने कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया । हमारे समाज द्वारा आज भी अपनाएं जाने वाले रीति-रिवाजों पर यदि हम गौर करे तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि हमारे यह रीति-रिवाज राजपूती परम्पराओं से कितना मेल खाते हैं । राजपूत अर्थात् क्षत्रिय और रैगर दौनों ही क्षत्रिय वंशज है इसे प्रमाणित करने के लिये एक पौराणिक कहानी है जिसमें रैगर जाति की उत्पत्ति का सीधा सम्बन्ध सूर्यवंशी राजा सगर से था । वो इस प्रकार है-
सर्यूवंशी राजा सगर की दो रानियां थी । एक रानी से चार पुत्र थे – असंमजस, अशुंमान, दलिप और भागिरथ तथा दूसरी रानी के साठ हजार पुत्र थे (पौराणिक ग्रन्थों के आधार पर) । कपिल मुनि ने किसी कारण वश क्रोधित हो कर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को श्राप देकर पाषाण पुतलों में परिवर्तित कर दिया । अपने पुत्रों को पाषाण पुतलों में परिवर्तित देख राजा सगर और छोटी रानी बहुत दुखी रहने लगे राजा सगर के ज्येष्ठ पुत्र असंमजस से अपने माता-पिता का दुख नहीं देखा गया । उन्हें दुखी देख वे कपिल मुनि के श्राप से अपने पाषाण हुए भ्राताओं की मुक्ति की याचना करने उनके आश्रम गये । आश्रम में रह कर असंमजस ने कपिल मुनि को प्रसन्न करने के लिये उनकी सेवा में जुट गये । कई वर्षो की निरन्तर सेवा से प्रसन्न होकर कपिल मुनि ने असंमजस को इच्छित वस्तु मांगने को कहा ।
क्या यह सही है कि रैगर सन्त रविदास जी के वंशज थे?
रैगर जाति का सम्बन्ध सन्त रविदास जी से जोड़ना इतिहासकार और लेखकों का प्रयास पूरी तरह से गलत है । सन्त रविदास जी जाति से मेघवाल थे, और उनका अधिकांश जीवन बनारस में ही व्यतीत हुआ था, अगर रैगर जाति सन्त रविदास जी की वंशज होती तो बनारस या उसके आसपास के क्षेत्रों में रैगर जाति के लोग अवश्य मिलते । इसके अतिरिक्त रैगर जाति और मेघवाल जाति के गौत्रों में कभी भी समानता नहीं रही । इन दोनों जातियों के गौत्रों में समानता न होने के कारण इनमें कभी भी समानता नहीं रही । समानता बस इतनी ही थी कि रैगर जाति की भाँति सन्त रविदास जी की भी इष्ट देवी माता गंगा ही थी ।
असमंजस ने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा, हे ! ऋषिवर ! राजा सगर का पुत्र होने के नाते मेरे पास किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं है । आपसे तो मेरी बस एक ही प्रार्थना है कि आप अपना दिया हुआ श्राप वापस लेकर पाषाण में परिवर्तित हुए मेर सभी भ्राताओं केा पुन: जीवन दान दें ।
कपिल मुनि ने असंमजस से कहा, ”वत्स! यह तो मेरे लिये सम्भव नहीं है क्योंकि दिया हुआ श्राप वापस लेने में असमर्थ हूँ, परन्तु एक उपाय है जिससे तुम्हारे समस्त भ्राताओं को पुन: जीवन प्राप्त हो सकता है ।”
यह सुनकर असंमजस को आशा की किरण दिखाई दी । उन्होंने अधीरता दिखाते हुए कपिल मुनि से उपाय बताने की प्रार्थना की ।
कपिल मुनि ने कहा, ”पुत्र ! मेरे द्वारा अनायास ही क्रोध में दिये गये श्राप के कारण पाषाण में परिवर्तित हुए तुम्हारे सभी भ्राताओं को केवल माता-गंगा ही जीवन प्रदान कर सकती है ।
”माता-गंगा?” आश्चर्य से असंमजस ने पूछा, ”उन्हें भला पृथ्वी पर कैसे लाया जा सकता है ? वे तो स्वर्ग में बहने वाली समस्त देवताओं की प्रिय नदी है । ”
हाँ पुत्र ! जीवन दायनी माता गंगा स्वर्ग में बह कर अपने निर्मल जल का मस्त देवताओं को अमृतपान कराती है, उन्हें पृथ्वी पर लाना कोई सहज कार्य नहीं है । कदाचित इन्द्र और अन्य देवगण भी माता गंगा का स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर जाने से क्रोधित हो सकते हैं । ” कपिल मुनि ने बताया ।
”मुनिवर ! फिर तो मेरे भ्राता कदापि जीवित नहीं हो सकते है” । असंमजस ने निराशापूर्वक पूछा, ”क्या ऐसा कोई भी उपाय नहीं है जिससे माता गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके ?”
”उपाय तो है पुत्र ! माता गंगा को पृथ्वी पर लाने में केवल ब्रह्मा जी ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं । इस कार्य के लिये तुम्हें ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनकी आज्ञा लेना आवश्यक है । उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनकी कठोर तपस्या करनी होगी । प्रसन्न होने पर वे ही माता गंगा को पृथ्वी पर ले जाने का वरदान दे सकते है ।” कपिल मुनि ने असंमजस को सान्तवना देते हुए उपाय बताया ।
असंमजस ने कृतज्ञता पूर्वक कपिल मुनि से कहा, ”हे ऋषिवर ! आपने मेरे भ्रातओं की जीवन प्राप्ति का जो उपाय सुझाया है उनके लिये मैं आपका कोटि-कोटि धन्यवाद करता हूँ ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिये हम चारों भ्राताओं को चाहे कितना भी कठोर तप क्यों न करना पड़े, हम उन्हें प्रसन्न करने के लिये निरन्तर तपस्या करते रहेंगे, और उनसे माता गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लोन का वरदान अवश्य प्राप्त करेंगे ।
”ईश्वर तुम्हें शक्ति दे और तुम्हारा मनोरथ सफल हो” कहकर कपिल मुनि ने आशीर्वाद देकर असमंजस को विदा किया ।
अपने पुत्र असंमजस को कपिल मुनि ने आश्रम से बहुत समय उपरान्त लौटा देख राजा सगर को अपने साठ हजार पुत्रों के पुन: जीवित होने की आशा की किरण सी दिखाई दी । उन्होंने असंमजस का स्वागत करते हुए पूछा, ”पुत्र असंमजस ! क्या कपिल मुनि ने अपना श्राप वापस लेने का वचन दिया है या कोई अन्य मार्ग सुझाया है ?”
असंमजस ने कपिल मुनि द्वारा बताए गए उपाय के विषय में अपने पिता और तीनों भ्राताओं को बताया ।
कपिल मुनि द्वारा बताए गये उपाय के विषय में सुनकर राजा सगर गहरी चिन्ता में डूब गये । वे जानते थे कि राज महलों का सुख भोगने वाले ये राज-कुमार वनों में जाकर कठोर तपस्या कदाचित नहीं कर पायेंगे ।
अपने पिता को चिन्ता मग्न देख उनके पुत्र भागीरथ ने अपने पिता को सम्बोधित करते हुए कहा, ”पिता श्री ! आप व्यर्थ की चिन्ता छोड़ियें, अपने भ्राताओं को मुक्ति दिलाना हमारा कर्त्तव्य है । मैं आपका कनिष्ट पुत्र आज यह संकल्प लेता हूँ कि ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनसे गंगा माता को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने को वरदान अवश्य प्राप्त करूँगा, इसके लिये मुझे चाहे कितना भी कठोर तप करना पड़े ।”
”राजा सगर के अन्य तीनों पुत्र – असंमजस – अंशुमान और दलीप इस बात से सहमत नहीं थे कि उनका कनिष्ट भ्राता अकेले ही तपस्या करते हुए वन के कष्ट भोगे, इसलिये वे तीनों भी अपने पिता की आज्ञा लेकर भागीरथ के साथ वन को प्रस्थान कर गये ।
कठोर तक करते हुए असंमजस, अंशुमान और दलीप तो काल के गाल में समा गये, परन्तु भागीरथ निरन्तर सैकड़ों वर्षो तक अन्न जल त्याग कर कठोर तप करते रहे ।
जिस समय भागीरथ तपस्या करने में लीन थे, उधर दैत्य गुरू शंक्राचार्य अपना कुचक्र रचने की योजना बना रहे थे । ”
”यह दैत्य गुरू शुक्राचार्य कौन थे ? और कैसा कुचक्र रचने की योजना बना रहे थे ?” “जिस प्रकार ऋषि दुर्वासा बात-बात पर क्रोध वश श्राप देने के लिए प्रसिद्ध थे, उसी प्रकार दैत्यगुरू शुक्राचार्य भी वाम मार्ग पर चलने के कारण प्रसिद्ध थे । अपनी कुशाग्र बुद्धि और अपार आसुरी शक्तियों के कारण राक्षसों और दानवों के परम हितैषी बनकर वे देवताओं को सदैव ही प्रताडित किया करते थे । स्वयं देवताओं के राजा इन्द्र भी उनकी आसुरी शक्तियों से भयभीत रहते थे ।” |
”भगवान विष्णु को अपना प्रबल विरोधी मानकर अपनी अपार शक्तियों के बल पर दैत्यगुरू स्वंय भगवान विष्णु का स्थान प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहते थे, परन्तु भगवान विष्णु के आगे वे असहाय थे । दैत्यगुरू शुक्राचार्य को भलिभाँति ज्ञात था कि अधिक आसुरी शक्तियों के बल पर ही विष्णु का आसन प्राप्त किया जा सकता है । आसुरी शक्तियों को अधिक बढ़ाने का मार्ग तो उन्हें ज्ञात था, परन्तु उचित अवसर न मिल पाने के कारण विवश थे ।”
”एक दिन दैत्यगुरू शुक्राचार्य अपने आश्रम में विचार मग्न बैठे हुए थे तो एक गुप्तचर ने आकर उन्हें बताया कि राजा सगर के पुत्र भागीरथ वन में रहकर घोर तपस्या कर रहे हैं । गुप्तचर द्वारा दिये गये समाचार को सुनकर शुक्राचार्य मन ही मन में सोचने लगे कि आखिर भागीरथ ऐसी घोर तपस्या किस प्रयोजन से कर रहा है । गुरू शुक्राचार्य को यह तो ज्ञात था कि कपिल मुनि के श्राप से राजा सगर के साठ हजार पुत्र पाषाण में परिवर्तित हो चुके थे, परन्तु भागीरथ के तप करने का प्रयोजन क्या हो सकता है, इसक ज्ञात करने के लिये वे बहुत व्याकुल हो उठे । बहुत सोचने पर भा भागीरथ के तप करने का प्रयोजन ज्ञात करने में असफल हो कर उन्होंने अपने गुप्तचरों को राजा सगर के राज्य में भेजकर भागीरथ के तप करेन का रहस्य ज्ञात करने का ओदश दिया ।”
”गुप्तचरों ने कुछ ही दिनों में सारा रहस्य जानकर दैत्यगुरू शुक्राचार्य को आकर बताया कि भागीरथ जी स्वर्ग लोक से माता गंगा को पृथ्वी पर ले जाना चाहते हैं और इसीतिये ब्रह्मा को प्रसन्न कर वरदान प्राप्ति के लिये घोर तपस्या कर रहे हैं । गुप्तचरों ने कपिल मुनि द्वारा दिये गये श्राप से पाषाण हूए सगर के साठ हजार पुत्रों को पुन: जीवित होने का कपिल मुनि द्वारा बताए गये उपाय से भी गुरू शुक्राचार्य को अवगत कराया ।”
गुप्तचरों द्वारा दी गई जानकारी को सुनकर गुरू शुक्राचार्य की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा । उन्हें अपनी आसुरी शक्तियों को बढ़ाकर भगवान विष्णु का आसन प्राप्त करने का स्वप्न साकार होता प्रतीत हुआ । अपनी कुटिल योजना को क्रियान्वित करने के लिए गुरू शुक्राचार्य ने समय नष्ट किए बिना अपने विश्वस्त अनुचरों को एकत्रित करके आदेश देते हुए कहा, ”देखों, तुम्हें प्रत्येक रात को राजा सगर के राज्य में जाकर उन साठ हजार मानव पुतलों में से एक-एक करके तीन सौ साठ पुतलों को चुरा कर इस आश्रम में एकत्रित करने है । यह पुतले एक वर्ष की अवधि में ही एकत्रित करने है, और ज्ञात रहे इन्हें एकत्रित करने में केवल छल का प्रयोग हो, बल का प्रयोग कदापि नहीं होगा चाहिए ।” गुरू शुक्राचार्य का आदेश का पालन करते हुए उनके अनुचरों ने प्रत्येक रात्री को एक-एक करके पुतले चुरा कर लाना प्रारम्भ कर दिया, और इस प्रकार एक वर्ष में तीन सौ साठ पुतले चुराकर आश्रम में एकत्रित कर लिये गये । आश्रम में तीन सौ साठ पुतले एकत्रित होने के बाद गुरू शुक्राचार्य ने गंगा नदी का पवित्र जल लाने के लिये दैत्य-दानवों के दल बल के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । स्वर्ग के किसी भी देवता एवं स्वयं देवराज इन्द्र में भी इतना साहस नहीं था कि वे गुरू शुक्राचार्य का विरोध कर सकें, इसलिये वह सहज पूर्वक गंगा जल लेकर आश्रम लौट आये । ”
”आश्रम में आने के पश्चात् कपिल मुनि द्वारा बताए गये उपाय का प्रयोग करते हुए गुरू शुक्राचार्य ने उन सभी पुतलों को स्वर्ग से लाये गये गंगा जल से स्नान करवाया । गंगा जल से स्नान करवाने के उपरान्त भी उन पाषाण पुतलों को जीवन प्राप्त नहीं हो सका तो गुरू शुक्राचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ । ”
गुरू शुक्राचार्य द्वारा स्वर्ग से लाये गये गंगा जल से स्नान कराने के उपरान्त भी वे पुतले जीवित क्यों नहीं हुए, क्या कपिल मुनि द्वारा बताया गया उपाय असत्य था ? भला ऋषिवर कपिल जी द्वारा बताया गया उपाय मिथ्या कैसे हो सकता था । दोष तो था गुरू शुक्राचार्य द्वारा लाये गये दूषित गंगा जल का जिन पात्रों (बर्तनों) में गंगा जल लाया गया था वे पात्र मदिरा एवं अन्य दूषित पदार्थो के प्रयोग में लाए जाते थे । भला दूषित हुए गंगा जल से वे पुतले कैसे जीवित हो सकते थे ?” |
”जब वे पुतले गंगा जल से स्नान करवाने के पश्चात् भी जीवित न हो सके तो गुरू शुक्राचार्य ने अपनी शक्तियों के बल से उन्हें कृत्रिम रूप से जीवित कर दिया । उन्हें जीवित देख गुरू शुक्राचार्य को क्षणिक प्रसन्नता तो हुई परन्तु शीध्र ही उन्हें यह आभास हो गया कि अपनी सिद्धियों के बल से कृत्रिम रूप में जीवित यह मानव पुतले सम्भवत: अधिक सिद्धियां और शक्तियां प्राप्त करने में सहायक नहीं हो सकते, क्योंकि इन कृत्रिम रूप से जीवित हुए मानव पुतलों में आत्मा का प्रवेश तो हुआ ही नहीं था । आत्मा का प्रवेश तो केवल गंगा के पवित्र जल से स्नान कराने के पश्चात् ही हो सकता था, इसलिए गुरू शुक्राचार्य ने अपनी योजना को गंगा को पृथ्वी पर आने तक के लिये स्थागित करना ही उचित समझा । वैसे भी उन्हें ज्ञात था कि अपनी कार्य सिद्धि के लिये शुभ घड़ी ओर शुभ नक्षत्रों के आने में अभी पर्याप्त समय था ।”
क्योंकि शुभ घड़ी और शुभ नक्षत्रों के आने में अभी पर्याप्त समय था, इसलिये शुक्राचार्य ने कृत्रिम रूप से जीवित हुए उन तीन सौ साठ मानवों को आश्रम वासियों की सेवा व अन्य कार्य करवाने के लिये नियुक्त करना ही उचित समझा । यही सोच कर उन सबको दस-दस की संख्या में बाँट कर विभिन्न कार्यों पर नियुक्त कर दिया गया । जिन कार्यो पर उन्हें नियुक्त किया गया था वे इस प्रकार थे : –
◈ आखेट करके असुरों के लिये मांस का प्रबन्ध करना।
◈ मदिरा बनाना।
◈ खेती करके अन्न उत्पादन करना।
◈ भोजन पकाने के लिये तथा हवन करने के लिये वन से लकड़िया काट कर लाना।
◈ आखेट किये गये मृत पुशओं की खाल उतार कर आश्रम वासियों के बैठने के लिये आसन बनाना।
◈ आश्रम के पालतु पशुओं के लिये चारे का प्रबंध करना, उनकी देखभाल करना, उनका दूध निकलना, साफ सफाई करना।
◈ आश्रम वासियों के लिये नई कुटिया बनाना तथा पुरानी कुटियों को ठिक करना।
◈ मृत पशुओं की खालों को रंगना और उनसे आश्रम वासियों के लिये जूतियां बनाना आदि।
”उन सभी की अपने अपने कार्यों पर नियुक्ति के पश्चात् उन्हें सम्बोधन करने के लिये उनका नामकरण करना भी अति आवश्यक था, ताकि आवश्यकता होने पर किसी को भी उसके नाम से ही पुकारा जा सके ।”
”दैत्यगुरू शुक्राचार्य ने अपने ज्ञान का प्रयोग करते हुए नक्षत्रों के अनुसार उन सभी तीन सौ साठ मानवों का नाम-करण किया ।” उन तीन सौ साठ नामों कि सूची इस प्रकार है :-
आलोरिया | अलूरिया | अटोलिया | टागरवाल | अटावदिया |
असवाल | आसोदिया | अटावनिया | आदमहर | ओसिया |
अकरणिया | अणदेरिया | आलोदिया | अलबलिया | अटारिया |
अलवाडिया | ओरण्डिया | अलूलिया | उदीणिया | कमाणिया |
खटखड़िया | उदेणिया | उचीणिया | उजीणिया | उरेसरक्या |
ऊंजीवाल | अन्दरीवाल | उदेपुरिया | ऊनिया | उधारीवाल |
उमरिया | उमराव | उतेणिया | उमरविया | कुरड़िया |
कानखेड़िया | कनळेचिया | कोटिया | कोषिया | करोतिया |
कंवटिया | कंजोटिया | कांसोटिया | करकवाल | करणिया |
कराड़िया | कीकरीवाल | कराईवाल | कटारिया | कराड़ |
केईवाल | कुड़किया | कायलीवाल | कुंडारिवाल | कंवरिया |
कचावटिया | कांचरोलिया | कण्डवाल | कासीवाल | कनवाड़िया |
क्रावाल | करावलिया | खटुमरिया | खोरवाल | खोलिया |
खजोतिया | खमूकरिया | खरेटिया | खटरवड़िया | खानपूरिया |
खटनावलिया | खींखरिया | खतरीवाल | खेरातिवाल | खाटोलिया |
खनखेड़िया | गुसाईवाल | गणोलिया | गरण्डवाल | गोगारिया |
गोपरिया | गाडोदिया | गाठोलिया | गांगडोलिया | गेलिया |
गेरिया | गढ़वाल | गाडेदिया | गुमाणिया | गण्डसाड़िया |
गंगवाल | गुगडोदिया | घरबारिया | घरगाबरिया | गींगरीवाल |
गोरखीवाल | चान्दोलिया | चूंटवाल | चींचरिया | चौरटिया |
चौमियां | चून्दवा | चान्दोरिया | चंगरीवाल | चन्देला |
चोमोया | चींचरीवाल | चूनभूंका | चमनाणिया | चूहाणिया |
जलूथरिया | जजोरिया | जाटोलिया | जग्गरवाल | जरझरिया |
जाटवा | जेलिया | जाबडोलिया | जागरीवाल | जौणिया |
जेनवाल | जाडेतिया | जाटीया | जौमधारिया | जागेटिया |
जाबडजाटीया | जगीणीया | जूगादमहर | जींजरीवाल | जौंलिया |
जाजोया | गाडेगांवलिया | ठाकरिया | ठेडवाल | टींटरीवाल |
टेडवाल | टोलिया | टूमांणिया | टींकरिया | टठवाडिया |
टीटोईया | डबरिया | डीगवाल | डींडरीवाल | डींगरीवाल |
डालवाडिया | डोरिया | डूरिया | डडोरिया | डोलिया |
डाड़वा | डन्डूलिया | डबलीवाल | डडवाणिया | झंगीणिया |
ढैरवाल | तौणगरिया | तुलिया | तींतरीवाल | तलेटिया |
तिगाईया | तंवरिया | तरमोल्या | तुणल्या | तालमहर |
दौताणिया | देवतवाल | दोरिया | दूरिया | दुलारिया |
दबकरिया | दुन्दरीवाल | दींदरीवाल | दोलिया | छतेरीवाल |
दूधिया | दबकिया | धौलखेड़िया | धनवाड़िया | धैलिया |
धूड़िया | धमकड़िया | धौलपूरिया | धवड़िया | नराणिया |
नीचिया | नोगिया | नंगलिया | नवलिया | नटिया |
नारोलिया | नैनवा | नाड़ोल्या | नूनवा | नौणीया |
नमलिया | नूवाल | पीपलीवाल | परसोया | पाछासरकणीया |
पण्टेदिया | पूरिया | पलिया | पींगोलिया | पीपल्या |
पौरवाल | पेजीवाल | पछावाड़िया | पदावल | पदावयिला |
पैडिया | पूनखेडिया | पनीवाल | फलवाड़िया | फोंपरिया |
फकूरिया | फन्टूदिया | फछांवड़िया | बारोलिया | बागोरिया |
बेबरिया | बगरोलिया | बोकोलिया | बाईवाल | बजेपुरिया |
बराण्डिया | बुहारिया | बान्सीवाल | बुन्देला | बड़ौलिया |
बडोदिया | बडैतिया | बालोटिया | बन्दोरीवाल | बड़ीवाल |
बिलूडिया | बन्दरवाल | बदरिया | बिणौलिया | बाबरीवाल |
बेहरा | बसेटिया | वढारिया | बगसणिया | बन्दनवार |
बदलोटिया | बासनवाल | बड़ारिया | बंछावंदिया | बावरिया |
भूराड़िया | भांखरीवाल | भगरीवाल | भहरवाल | भौपरिया |
भौंसिया | भूरण्डा | भौसवाल | भोजपूरिया | मण्डोतिया |
मोहरिया | मोरिया | माणोलिया | मन्डेरीवाल | मण्डावरिया |
माछलपुरिया | मुहाणिया | मन्डेतिया | मड़ा | मोरवाल |
मांचावाल | मन्दोरिया | मोहनपुरिया | मौरनीवाल | मोहलिया |
मींमरीवाल | मदनकोटिया | मजेरीवाल | मुरदारिया | मान्दोरिया |
माटोलिया | मन्डारे | मुराड़िया | महर | मण्डरवलिया |
मोरथयिला | मदारीवाल | ममोलिया | मरमट | मुंजीवाल |
मोरोलिया | राठौड़िया | रगसणीया | राठोणिया | रागोरिया |
भाटीवाल | रिठाड़िया | मेहिल | रठाडिया | रोंछिया |
रच्छोया | रातावाल | रावत | रेहड़िया | राजोरिया |
रांचावाल | रूण्ठडिया | लावड़िया | लोदवाल | लुवाणिया |
लोगिया | लौंणवाल | लबाणिया | सेनवाल | सौंकरिया |
सेरसिया | सागोया | साला | सोडमहर | सक्करवाल |
सेवलिया | सांटोलिया | सालोदिया | सिंगाडिया | सवांसिया |
सेठीवाल | साटीवाल | सारोलिया | सरसूणिया | सूरीवाल |
सनवाड़िया | सड़ा | सीवाल | सीखवाल | सुनारीवाल |
सबलाणिया | सबदाड़िया | सेवड़िया | सीरोया | संजीवाल |
सेकिया | हाथीवाल | हरडणिया | हिन्डौणिया | हणोत्या |
हैड़िया | होलिया | हेकरिया | हन्देरिया | होणवाल |
हुधारिया | हटविया | मोलपूरिया | मुचेतिया | सुन्दरीवाल |
लोल्या | लूलवा | माण्डोलिया | हल्देरिया | हंजावालिया |
शुक्राचार्य द्वारा बताएं गये कार्य उन तीन सौ साठ मानवों की दिनचर्या थी, और शुक्राचार्य को प्रतिक्षा थी उचित अवसर की जिसके विषय में सभी आश्रम वासी भी अनभिज्ञ थे । उधर भागीरथ के कठोर तप से ब्रह्मा जी ने प्रसन्न हो कर उन्हें वरदान मांगने को कहा ।
भागीरथ ने नम्र निवेदन करते हुए कहा, ”हे परमपिता परमेश्वर ! कपिल मुनि द्वारा दिये गये श्राप के कारण राजा सगर के समस्त पुत्र पाषाण में परिवर्तित होकर रह गये है, और उन्हीं के द्वारा बताये गये उपाय से माता गंगा के पवित्र जल से स्नान करवाने से वे सब जीवित हो सकते है । मेरा तप करने का प्रयोजन माता गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर ले जाने का था, इसलिये आप मुझे माता-गंगा को पृथ्वी पर ले जाने के अनुमति और आर्शीवाद प्रदान करे ।”
ब्रह्मा जी ने भागीरथ को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘पुत्र भागीरथ ! ”तुम्हारी तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें स्वर्ग से पृथ्वी लोक पर गंगें को ले जाने की अनुमति प्रदान करता हूँ । अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलों और गंगें को पृथ्वी पर ले आओ ।”
स्वर्ग पहुंच कर ब्रह्मा जी ने गंगा का स्मरण किया । माता गंगा ने प्रकट हो कर विनम्रता पूर्वक ब्रह्मा जी से पूछा, ‘पिताश्री ! आपने मुझे किस प्रयोजन हेतु स्मरण किया है, आज्ञा दीजिये मुझे क्या करना है ।”
”पुत्री गंगें ! अब समय आ गया है, तुम्हें स्वर्गलोक छोड़ कर मानव कल्याण के लिये पृथ्वी पर जाना ही होगा और राजा सगर के साठ हजार पुत्रों में से शेष पुत्रों को अपने पवित्र जल से स्नान कराके उन्हें मुक्ति देनी होगी ।” ब्रह्मा जी ने आदेश मिश्रित स्वर में कहा ।
भागीरथ ने अंचभित होते हुए ब्रह्मा जी से प्रश्न किया, ”हे विधाता ! प्रश्न पूछने की धृष्टता के लिये क्षमा चाहता हूँ, आपका शेष पुत्र कहने का अभिप्राय क्या था यह मैं नहीं समझ सका हूँ । कृपा करके इस पहेली से मुझे भी अवगत करायें ।”
”पुत्र भागीरथ ! यह प्रशन पूछ कर तुमने ऐसी कोई धृष्टता नहीं की जिसके लिये तुम व्यर्थ ही क्षमा याचना कर रहे हो, इस पहेली के विषय में तुम्हारा प्रश्न करना स्वर्था उचित ही था”, ब्रह्मा जी ने स्नेह पूर्वक भागीरथ से कहा और शेष पुत्र कहने का अभिप्राय बताया”, जिस समय तुम मेरी तपस्या में लीन थे उस समय दैत्य गुरू शुक्राचार्य ने छल से उन पाषाण हुए तुम्हारे साठ हजार भ्राताओं में से तीन सौ साठ भ्राताओं को किसी अज्ञात प्रयोजन हेतु चुरा कर अपनी सिद्धियों के बल पर उन्हें जीवित करके आश्रम वासियों की सेवार्थ कुछ घृणित कार्यो पर नियुक्त किया हुआ है ।” भागीरथ के प्रश्न का उत्तर दे कर उन्हें सन्तुष्ट किया……. और गंगा को सम्बोधित करते हुए कहा, ”पुत्री गंगें ! पृथ्वी लोक पर जाकर मानव कल्याण और राजा सगर के शेष पुत्रों को जीवनदान देने के पश्चात् समय आने पर दैत्यगुरू शुक्राचार्य के आश्रम में रह कर घृणित कार्य कर रहे उन तीन सौ साठ कृत्रिम मानवों का उद्धार भी तुम्हें ही करना है ।”
गंगा-माता ने शंका प्रकट करते हुए ब्रह्मा जी से कहा, ”पिता श्री ! आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा परम कर्त्तव्य है, परन्तु मुझे शंका है कि मेरा पृथ्वी पर जाने से मानव कल्याण होगा, मेरा वहाँ जाने से मानव कल्याण के स्थान पर उनका अहित होने की सम्भावना अधिक है । मेरे प्रबल प्रवाह को सह पाना मानव के लिये कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव भी है । मेरे प्रबल प्रवाह के कारण उनके खेत खलियान भी नष्ट हो सकते है । केवल भगवान शंकर ही मेरे तीव्र वेग को रोक पाने समर्थ है, इस लिये पृथ्वी पर जाने से पूर्व उनकी सहायता लेना आवश्यक है । ”
”परन्तु भोले शंकर तो इस समय समाधी में लीन है, समाधी से उनका ध्यान हटा पाना उनके क्रोध को नियन्त्रण देने के समान है ” । ब्रह्मा जी ने शंका प्रकट करते हुए बताया, ”अब तो केवल तपस्या द्वारा ही उन्हें समाधी से जगाने का प्रयास किया जा सकता है । समाधी टूटने के पश्चात् ही वे भक्तों की सुध लेते है, और भागीरथ का मनोरथ पूरा होने में उन्हें समाधी से जगाना भी अति आवश्यक है; मेरी इच्छा है कि भागीरथ, भोले शंकर के निवास स्थल कैलाश पर्वत पर जा कर अपनी तपस्या द्वारा उनको प्रसन्न करने का प्रयत्न करें” ब्रह्माजी ने सुझाया ।
ब्रह्माजी के सुझाव को आदेश मानकर भागीरथ जी स्वर्ग से वापस आकर हिमालय पर्वत पहुंचे तथा कैलाश पर्वत पर भोले शंकर को समाधी से जगाने के लिये उनकी तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी । बहुत वर्षो की निरन्त कठोर तपस्या उपरान्त भोले शंकर महादेवजी की तन्द्रा भंग हुई । तन्द्रा भंग होते ही उन्होंने भागीरथ के सन्मुख प्रकट होकर स्नेह पूर्वक भागीरथ को पुकारा”, उठो पुत्र भागीरथ ! हम तुम्हारी तपस्या से अति प्रसन्न हुए, कहो किस प्रयोजन से हमारे लिये ऐसा कठोर तप कर रहे थे, हम तुम्हारी मनाकामना अवश्य पूरी करेंगे” ।
भगवान शिव के पूछने पर भागीरथ ने कहा, ”हे केलाशपति ! आप तो स्वयं अन्तर्यामी है, मेरे द्वारा तप करने का कारण भी आपको भलीभाँति ज्ञात है; इसलिये मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरे लक्ष्य को पूर्ण करने में आप मेरी सहायता करे” । इतना कहकर भागीरथ ने अपने तप करने का प्रयोजन पूरे विस्तार से भगवान शिव को बताया ।
शंकर भगवान ने भागीरथ को सान्तवना देते हुए कहा, ”पुत्र भागीरथ ! अब तुम निश्चिंत होकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान करों और पुत्री गंगें को पृथ्वी पर ले आओं । गंगें के पृथ्वी पर आने से पूर्व ही हम उन्हें अपनी जटाओं में समा कर उनके वेग की गति को साधारण प्रवाह में परिवर्तित कर देंगे ”।
”इस प्रकार भागीरथ के निरन्तर प्रयास और कठोर तप के कारण माता-गंगा ने स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर अवतरित होने से यहाँ के वासी भी प्रसन्नता से झुम उठें । दैत्यगुरू शुक्राचार्य को भी गंगा के पृथ्वी पर आगमन के विषय में ज्ञात हो चुका था, इसलिये वे भी प्रसन्न थे, क्योंकि अधिक आसुरी सिद्धियां प्राप्त करने का अवसर अब उनके लिये समीप आ चुका था ।”
”शुभ घड़ी और शुभ नक्षत्रों के आधार पर दैत्यगुरू शुक्राचार्य ने उन तीन सौ साठ सेवकों को गंगा के पवित्र जल से स्नान करने के लिये अपने दो असुर सैनिकों के साथ प्रस्थान किया, तथा स्नान करने के पश्चात् उन्हें यथा शीघ्र आश्रम लौट आने का निर्देश भी दिया ।
अपने मार्ग पर चलते हुए असुर सैनिकों ने एक हष्ट-पुष्ट सुअर को वन में विचरण करते हुए देखा । सुअर को देख वह दोनों उसका आखेट करने का लोभ नहीं त्याग सके । सुअर का आखेट करने का निश्चय करके उन्होंने उन सभी तीन सौ साठ सेवकों को गंगा में स्नान कर आने का आदेश दे कर स्वयं सुअर का पीछा करते हुए आंखों से ओझल हो गए ।”
”दैत्यगुरू शुक्राचार्य द्वारा दिये गये ओदश का पालन करते हुए वे सभी तीन सौ साठ सेवक गंगा स्नान करने के लिये गंगा तट पर पहुँचे । जब वह सभी स्नान करने की तैयारी कर ही रहे थे तो साक्षात् माता-गंगा ने उनके सम्मुख प्रकट होकर उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, ”पुत्रों ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा में थी । नि:सन्देह तुम्हें तनिक भी यह आभास नहीं होगा कि दैत्यगुरू शुक्राचार्य ने अपनी आसुरी शक्तियों को अधिक बढ़ाने के लिये एक यज्ञ का आयोजन किया है । स्नान करने के पश्चात् जब तुम सम्पूर्ण मानवों में परिवर्तित होकर आश्रम पहुँचोगे तो दैत्यगुरू शुक्राचार्य द्वारा किये जा रहे यज्ञ में तुम्हारी बली दी जायेगी, इस प्रकार दैत्यगुरू शुक्राचार्य का सम्पूर्ण सिद्धियां प्राप्त करने का स्वप्न साकार हो जायेगा ”।
”गुरू शुक्राचार्य की इस योजना के विषय में केवल ब्रह्मा जी को ही ज्ञात था और स्वर्ग से प्रस्थान करते समय उन्होंने शुक्राचार्य की इस कुटिल योजना से मुझे भी अवगत करा दिया था ”।
शुक्राचार्य की ऐसी कुटिल योजना के बारे में सुनकर वे दंग रह गये । उन्होंने माता-गंगा से अपनी रक्षा की याचना की ।
माता-गंगा ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ”पुत्रों ! इस समय तुम मेरी शरण में हो । ब्रह्मा जी के आदेशानुसार तुम्हारी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है । अब तुमसब निर्भय होकर मेरे पावन जल से स्नान करों ”।
”जब वे सभी स्नान कर चुके तो उन सबको अपेन आप में परिवर्तन सा प्रतीत हुआ । पवित्र जल से आचमन करने के पश्चात् उन्होंने माता-गंगा को भविष्य की योजना बताने का आग्रह किया ।”
”माता-गंगा ने उन सभी को एक-एक पात्र (कमण्डल) थमा कर उनमें जल भरने को कहा”।
जब वे अपना-अपना कमण्डल जल से भर चुके तो माता-गंगा ने उन से कहा, ”पुत्रों ! कदाचित तुम्हें यह ज्ञात नहीं की तुम सब सूर्यवंशी राजा सगर के पुत्र थे, परन्तु तुम्हारी पहचान राजा सगर के पुत्रों के रूप में उसी दिन से समाप्त हो चुकी थी जब शुक्राचार्य ने तुम सबको चुराकर अपनी सिद्धियों का अनुचित प्रयोग करके तुम्हें कृत्रिम रूप से जीवित किया था, और दास बनाकर तुम सबसे घृणित कार्य करवाये थे ।”
”मेरे पवित्र जल से स्नान करने के कारण अब तुम्हारा पुर्नजन्म हुआ है । उधर राजा सगर के अन्य पुत्रों को भी इस पवित्र जल से स्नान करने के कारण कपिल मुनि, के श्राप से मुक्ति मिल चुकी है । पाषाण शरीर से मुक्ति मिलने के पश्चात् तुम्हारे भ्राताओं को यह भी ज्ञात हो चुका है कि दैत्य गुरू शुक्राचार्य के आश्रम में रहते हुए तुम्हारे से घृणित कार्य करवाए जाते थे, इसलिए वह सब तुम्हें अपने भ्राताओं के रूप में स्वीकार करेगें, यह असम्भव प्रतीत होता है ।”
”तुम्हारे पुर्नजीवित होने के पश्चात् तुम्हें दैत्यगुरू शुक्राचार्य की इस योजना के विषय में कदाचित यह भी ज्ञात नहीं होगा कि सम्पूर्ण मानवों में परिवर्तित होने के पश्चात् वह अपनी विशेष कार्यसिद्धि के लिए तुम्हारी सभी की बली देना चाहता है, और ज्ञात भी कैसे होता कि आश्रम में रहते हुए तुम सब कृत्रिम रूप से जीवित हुए कठपुतलियों की भाँति जीवन व्यतीत कर रहे थे ।”
”माता ! अब तो हमारी मृत्यु निश्चित ही जान पड़ती है, क्योंकि हमें अपने भ्राताओं का संरक्षण भी प्राप्त नहीं हो सकेगा, और दैत्यगुरू अवश्य ही हमारी बली देकर अपने प्रयोजन में सफल होगें । माता ! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे हम इस अनिष्ठ से बच सकें ?” उनमें से किसी एक ने माता-गंगा से निवेदन करते हुए पूछा । ”पुत्रों ! यह एक तो तुम्हें ज्ञात हो चुका है कि तुम सब राजा सगर के पुत्र थे और कदाचित तुम्हारे अन्य भ्राता तुम्हें अपने भ्राताओं के रूप में स्वीकार कर सकें ।
”दैत्यगुरू शुक्राचार्य तुम्हारा तनिक भी अहित न कर सके और तुम्हारे सूर्यवंशी होने की पहचान भी बनी रहे और भविष्य में सूर्यवंशी परम्परा के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर सको इसलिए आज मैं तुम्हें नए नाम से अलंकृत कर रही हूँ और वह नया नाम है ”रैगर” । सूर्यवंशी राजा सगर के पुत्रों के स्थान पर सूर्यवंशी रैगर पुत्रों के रूप में तुम्हारी नई पहचान होगी । इस नये नाम को अपनी जाति के रूप में अपनाओं तथा यथा शीघ्र यह स्थान छोड़कर पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान करो ।
”यहाँ से लगभग चार सौ योजन की दूरी पर तुम्हें ऐसा स्थान मिलेगा जहाँ चारों ओर मरूस्थल ही मरूस्थल तथा दूर-दूर तक फैली हुई पर्वत श्रृंखलाऐं ही दिखाई देगी । उन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित एक सरोवर है । वह सरोवर ब्रह्मा जी को अति प्रिय है । वहाँ पहुँच कर तुम सभी मिलकर ब्रह्मा जी की स्तुति करना । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्माजी प्रसन्न हो कर तुम्हें साक्षात दर्शन देगें तथा तुम्हारा भाग्य भी लिखेगें, और भविष्य के लिए तुम्हे दिशा निर्देश भी देंगे । वहाँ पहुँचने पर दैत्यगुरू शुक्राचार्य तुम्हारा कुछ भी अहित नहीं कर सकेगा ।” इतना कह कर माता-गंगा ने उन्हें यथा शीघ्र प्रस्थान करने की आज्ञा दी ।
”माता-गंगा के आदेशानुसार उन सभी ने पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान किया और लगातार चलते हुए वे मरूभूमि में प्रविष्ट हो गये ।
![]() जिस सरोवर के विषय में माता गंगा ने बताया था, कालान्तर में वही सरोवर तीर्थराज पुष्कर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भारतवर्ष में केवल यही एक मात्र स्थान है जहां ब्रह्माजी का मंदिर है । |
मरूभूमि का विशाल क्षेत्र जहाँ दूर-दूर तक फैली हुई पर्वत श्रृंखलाएं और रेतीजे टीले ही टीले दिखाई देते थे । ऐसे विशाल मरूस्थल में सरोवर का होना उन्हें असम्भव सा प्रतीत हुआ, परन्तु माता-गंगा के कथन पर अटूट विश्वास करते हुए सरोवर खोजने का प्रयास करते रहे और अन्त में उस स्थान पर पहुँचने में सफल हो गये जहाँ सरोवर था । वह सरोवर चारों ओर से घिरी हुई पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित था ।”
”सरोवर पर पहुँचने के पश्चात् रैगर पुत्रों ने उचित स्थान देखकर वहाँ की साफ सफाई करनी प्रारम्भ की, ऊगी हुई बेकार झाड़ियों को काटकर एक बड़ा सा समतल मैदान बनाया ताकि ब्रह्मा जी की वे सब सामुहिक रूप में पूजा कर सकें । साफ सफाई करने के पश्चात् उन्होंने सरोवर में स्नान किया और अपने साथ लाये गये गंगा जल का समतल किये मैदान पर छिड़काव करके ब्रह्माजी की पूजा करनी प्रारम्भ की ”।
”माता-गंगा के कथनानुसार उन सब की पूजा से प्रसन्न होकर कमल पुष्प पर बैठे हुए ब्रह्मा जी प्रकट हुए और आशीर्वाद देते हुए उनसे कहा, ”तुम्हारे यहाँ तक सकुशल पहुँचने पर समस्त देवता और स्वयं विष्णु जी भी प्रसन्न हैं । अब दैत्यगुरू शुक्राचार्य द्वारा स्वर्ग लोक और विष्णुजी का आसन प्राप्त करने का स्पप्न कभी भी साकार न हो सकेगा । तुम सब निर्भय होकर इस विशाल मरूभूमि क्षेत्र में अपनी-अपनी रूचि का स्थान देखकर बसना प्रारम्भ करों । गृहस्ती बसाने के लिये तुम्हारे भाग्य अनुसार अन सभी स्थानों पर योग्य कन्याओं का प्रबंध किया जा चुका है । अपनी सूर्यवंशी परम्परा के अनुसार उनसे विवाह करके रैगर वंश-बेल को आगे बढ़ाओं । सेवकों के रूप में आश्रम का कार्य करते समय दैत्यगुरू शुक्राचार्य ने तुम सब का जो नामकरण किया था, अब वही नाम अपने-अपने गौत्रों के रूप में प्रयोग करों । भविष्य में इन्हीं गौत्रों के आधार पर तुम सब आपस में वैवाहिक सम्बंध बना सकोगें।” उनका मार्ग दर्शन कर ब्रह्माजी ने उन्हें पुन: आशीर्वाद दिया और अर्न्तध्यान हो गये ।
”रैगर पुत्रों ने ब्रह्मी जी से आशीर्वाद और दिशा निर्देश प्राप्त करके वे सभी छोटे-छोटे समुह में विभक्त होकर मरूभुमि के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित होते गये, तथा ब्रह्माजी के आदेशानुसार उन सभी ने उन कन्याओं से विवाह किया और अपनी-अपनी गृहस्थी चलाने लगे । इस प्रकार उनका वंश बढ़ता गया । जैसे-जैसे इनकी संख्या बढ़ती गई उसी प्रकार ढ़ाणी, बस्ती और गाँव आबाद होते चले गये ”।
रैगर समाज की उत्पत्ति जिस मरूभूमि पर हुई थी कालान्तर में वह राजस्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ । |
”गंगा-माता द्वारा रैगर जाति का नामकरण किये जाने के कारण आदिकाल से ही गंगा-माता रैगरों की इष्ट देवी (पूजनीय) रही है । राजस्थान या किसी भी अन्य प्रदेश में जहाँ भी रैगर जाति की आबादी है उनके गली मौहल्लों में गंगा माता का मंदिर अवश्य मिलेगा । इसके अतिरिक्त किसी भी बड़े आयोजन के अवसर पर जहाँ रैगर समाज सामूहिक रूप में एकत्रित होता है उस समय रैगर समुह को ”जात गंगा” के नाम से ही सम्बोधित किया जाता है । इस बात से यह प्रमाणित होता है कि रैगर जाति की गंगा-माता के प्रति कितनी आस्था रही होगी ।”
दैत्यगुरू शुक्राचार्य के आश्रम में रहते हुए हमारे पूर्वजों ने जो काम सीखे थे वही काम आजीविका चलाने के लिये उनके वंशज रैगरों ने भी अपनाए । इन कार्यों में प्रमुख थे मरे हुए पशुओं की खाल उतारना, खाल की रंगाई करके उनसे जूतियां बनाना आदि आदि । यह सब कार्य करने के कारण सदियों रैगर समाज को घृणा की दृष्टि से देखा जाता रहा है । अन्य समाज द्वारा रैगरों को घृणा की नजर से देखने के कारण आज का पढ़ा लिखा रैगर समाज का युवा वर्ग किसी के पूछने पर अपनी जाति बताते हुए शर्म महसूस करता है, इसलिये आज का शिक्षित युवा वर्ग नहीं चाहता कि उनकी पहचान रैगर जाति के रूप में हो । अपनी पहचान छिपाने के लिये उन्होंने मूल गौत्रों के स्थान पर संशोधित गौत्र अपना लिये है । बदले हुए गौत्रों के कारण शादी-विवाह एक ही गौत्र में होने की सम्भावना बनी रहती है । गौत्र बदलने के कारण राजस्थान में ऐसी घटनाएं हो भी चुकी है जहाँ एक ही गौत्र के आपस में रिश्ते हुए है । समझ में नहीं आता कि जिस जाति को गंगा-माता ने ” रैगर ” नाम दिया हो, फिर उन्हें अपनी जाति छिपाने में शर्म क्यों आती है ?
रैगर जाति के नवयुवकों को दूसरों के पूछने पर अपनी जाति छिपाने केा सीधा सा कारण है – हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाए गये आजीविका के साधन, उनकी गरीबी और शिक्षा का अभाव था । आज के नवयुवकों को द्वारा अपनी जाति के बारे में लिखने या बताने में शर्म महसूस करते है । राजस्थान के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्रान्त में रैगर जाति के बारे में कोई नहीं जानता, चाहे वह रैगर बहुल क्षेत्र दिल्ली प्रान्त ही क्यों न हो ।
कालान्तर में ठाकुरों व अन्य जाति के जुल्मों तथा आजीविका की तलाश में रैगर जाति के लोगों ने अन्य प्रदेशों में जाकर बसना शुरू कर दिया था । |
अगर आज के नवयुवक और बुजुर्ग चाहे तो रैगर समाज की पहचान पूरे भारतवर्ष में हो सकती है और हमारे समाज का युवा वर्ग रैगर कहलाने में शर्म नहीं, गर्व करेगा । आज की दूषित गंगा की सफाई करके ।
समय-समय पर भारत सरकार द्वारा गंगा की सफाई करने का अभियान चलाया जाता रहा है । इस कार्य में न तो स्थानीय लोग और न ही सरकारी मशीनरी अपनी पूरी ईमानदारी से सहयोग करते है, इसलिये गंगा की सफाई नहीं हो पाती ।
जिस प्रकार सिख समुदाय अपने धर्म के प्रति पूरी आस्था रखते हुए तन-मन और धन से सामूहिक रूप में कार-सेवा करके बड़े-बड़े गुरूद्वारों का निर्माण कर देते है उसी प्रकार रैगर समाज के लोग भी अपने रीति-रिवाजों में होने वाले फिजूल खर्चों को बन्द करके अपने तन-मन और धन से सामूहिक रूप में भारत सरकार के साथ सहयोग करते हुए गंगा को पवित्र करने के लिए सफाई अभियान चलायें तो रैगर जाति का नाम उभर कर शीर्ष पर आ सकता है । इस अभियान से रैगर समाज की पहचान पूरे भारत में हो सकती है तथा इनसे घृणा करने वाले भी इन्हें आदर की दृष्टि से दिखेगें; युवा वर्ग को भी अपनी पहचान छिपाने के स्थान पर रैगर कहलाने में गर्व होगा और साथ ही गंगा-माता द्वारा हमारे पूर्वजों पर किये गए उपकार का कुछ ऋण भी चुकाया जा सकेगा ।
(साभार- रमेश जलुथरिया कृत ‘गंगा भागीरथ और रैगर’)
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