”उद्गार”
बचपन से ही मुझे पुरानी हवेली या ऐतिहासिक इमारतें देखने का शौक रहा है । इसी प्रकार पुरानी बातें जानने के उत्सुकता बनी रहती है । श्री चन्दरराम जी धूडिया, निवासी 74 रैगरपुरा से चौधरी पदमसिंह जी सककरवाल, श्री तोताराम जी खोरवाल, श्री मोटाराम जी मुंडोतिया के निर्दोष होने पर भी जेल की सजा भुगतने के बारे में जो जानकारी मिली, उसका मैं चन्दरराम जी का धन्यवाद करते हूँ ।
आसौज महीने में (सितंबर 1947) इन को लाहौर जेल से रिहा किया गया था । इनके रिहा होने पर रैगर समाज ने अपने अपने घरों पर दीप जलाकर खुशी मनाई थी इसीलिए इस पुस्तक का नाम भी “आसौज में दीवाली” रखा है ।
इस जानकारी को पाठकों तक पहुंचाने के लिए मेंने इसे एक कहानी का रूप दिया है । आशा करता हूँ की मेरे इस पुस्तिका से, दिल्ली वासी व भारत के रैगर समाज को, अपने बुजुर्गो द्वारा की गई कुर्बानियों की जानकारी मिलेगी नवयुवक प्रेरित होंगे ।
धन्यवाद्
स्व. श्री चौधरी पदमसिंह जी सक्करवाल
(1897-1973)
भले ही चौधरी जी अब हमारे बीच नहीं रहे, परन्तु उनका नाम प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की जुबान पर आता रहता है, क्योंकि तत्त्कालीन दिल्ली सरका ने उनकी अच्छी छवि के कारण एक सड़क का नाम उनके नाम पर ”पदमसिंह रोड़” रखा है जो करोल बाग के लिंक रोड़ से चल कर बीडन पुरा, रैगर पुरा, देवनगर के मध्य से होती हुई बापा नगर के अन्त तक चली जाती है ।
आगंतुक ने खपरैल की झौंपड़ी के बाहर बैठे हुए व्यक्ती को आवाज़ लगाई – “चन्दर भाई राम राम” ! चन्दर ने चौंकते हुए कहा – अरे मोहन तू ! मेरी भी तुझको बहुत-बहुत राम राम, तेरा तो बहुत समय बाद दिल्ली आना हुआ, कहो घर पर तो सब राजी खुशी हैं और पहले से ही बिछी हुई चारपाई की तरफ इशारा करते हुए बैठने को कहा” ।
मोहन ने चारपाई पर बैठने के बाद कहा, “हाँ चन्दर भाई घर पर तो सब राजी खुशी हैं । दिल्ली आकर तुझसे मिलने की मेरी बहुत इछ्छा कर रही थी इसीलिए चला आया”, कहकर अपनी गठरी में से एक छोटी सी पोटली निकाल कर मोहन को देते हुए कहा – “यह सौगात मेरे घर वालों ने तेरे लिए भेजी है” । चन्दर पोटली लेकर उसे लेकर अपनी पत्नी को देने झोंपड़ी के पिछवाड़े की ओर चला गया । उस समय उसकी पत्नी रात का खाना बनाने में लगी हुई थी ।
पोटली अपनी पत्नी को थमा कर जब वह वापस आया तो मोहन ने चन्दर को आश्चर्य से बताया, “जब मैं सराय रोहिल्ला स्टेशन से इस बस्ती में दाखिल हुआ तो देखा की सभी घरों के बाहर और मुँडेरों पर दीये जल रहे हैं । यह देख मुझे बहुत हैरानी हुई की दीवाली आवाने में तो अभी लगभग डेढ़ महीना बाकी है और यहाँ अभी से ही दीवाली मनाई जा रही है । ऐसी कौन सी खुशी की बात है ?”
चन्दर ने कहा, “बात ही ऐसी खुशी की है । तू पहले थोड़ा आराम कर ले, तब तक मैं दारू का इंतेजाम करता हूँ” । कह कर चन्दर बाहर के तरफ चला गया ।
कुछ समय बाद जब चन्दर वापस आया तो उसने देखा मोहन आँखें बंद किए लेटा हुआ था । मोहन को आँखें बाद किए हुए लेटा देख कर उसे आवाज़ लगाई, – मोहन ! सो गया क्या ?” “नहीं भाई ! मैं तो इस दीवाली के बारे में सोच रहा था जो समय से पहले ही मनाई जा रही है”, – मोहन ने बताया ।
अरे, इस के बारे में भी बताऊंगा, पहले हाथ मुंह धो ले, लंबे सफर से आया है, पानी बाहर बाल्टी में रखा है, लोटा भी उसी में है । मैं जब तक दारू के साथ खाने के लिए प्याज़ काट कर लाता हूँ” – कहकर चन्दर झौपड़ी के पिछवाड़े की ओर चला गया जहां उसकी पत्नी रोटी सेंक रही थी ।
मोहन हाथ मुंह धोने के पश्चात धोती के पल्लू से मुंह पोंछता हुआ चारपाई पर आ बैठा । उधर चन्दर भी दारू के सामान के साथ चारपाई के दूसरी तरफ आ कर बैठ गया । जब दोनों ने एक एक पैग गले से नीचे उतार लिया तो चन्दर ने कहा, “ तू जानना चाहता है ना की आज दीवाली क्यूँ मनाई जा रही है, तो सुन आज से दो दिन पहले हम सब के चहेते चौधरी जी काले पानी की सज़ा काट कर घर लौटे हैं” ।
(उस समय तक सभी को यह भ्रम था की चौधरी पदम सिंह जी को काले पानी की सज़ा हुई थी – लेखक)
“कौन चौधरी ? कैसी सज़ा” ? मोहन ने हैरानी से पूछा । चन्दर ने दूसरा पैग डालते हुए मोहन से ही प्रश्न किया, “अरे तू चौधरी पदम सिंह जी को नही जानता ? उन्हीं के जेल से छूटने के उपलक्ष्य में यह दीवाली मनाई जा रही है” । “अच्छा, चौधरी पदम सिंह जी, भला उन्हें कौन नहीं जानता । राजस्थान में रैगर समाज का बच्चा बच्चा उन्हे जानता है, परंतु तू पहले यह बता की ऐसे नेक इंसान को किस अपराध में सज़ा हुई थी” – मोहन ने आश्चर्य से पूछा ।
चंदर ने आखिरी पैग बनाकर मोहन को देते हुए कहा, “ले पहले इसे खतम कर, फिर खाना खाकर उनकी सज़ा के बारे में पूरे विस्तार से बताऊंगा ।” दोनों दोस्त यह बात कर ही रहे थे इतने में चंदर की पत्नी ने खाना परोस दिया था । आखिरी पैग पीकर दोनों खाना खाने में जुट गए ।
खाना समाप्त करके दोनों दोस्तों ने हाथ धोकर कुल्ला किया और हाथ मुंह धोती के पल्लू से पोंछ कर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे, जिसे चंदर की पत्नी ने कुछ समय पहले ही तैयार करके रख दिया था । हुक्के का कश छोडते हुए चंदर ने कहा, “हाँ तो तू चौधरी जी की सज़ा के बारे में जानना चाहता है की उन्हें सज़ा क्यूँ हुई । इस बारे में जानने से पहले तुझे हमारी बिरादरी का पुराना इतिहास जानना जरूरी है, जो उनकी सज़ा की कड़ी से जुड़ा हुआ है ।”
इस समय रात भी बहुत बीत चुकी है, और पूरी कहानी सुनाने में तो सारी रात ही बीत जाएगी, इसलिए अब हम सो जाते हैं । बाकी की कहानी कल सुबह सुनाऊँगा”, कहकर चंदर ने चारपाई पर पाँव पसार दिये । उधर मोहन भी दूसरी चारपाई पर एलईटी गया । कुछ पल बाद ही मोहन ने लेटे-लेटे ही चंदर से सवाल किया – यार ! चौधरी जी को प्रत्यक्ष रूप में देखने की मेरी बहुत इच्छा है, क्या तू मुझे उनसे मिलवा सकता है ?”
“अरे भाई ! यह भी कोई बड़ी बात है, चंदर ने भी लेटे-लेटे ही बताया, “उनकी रिहाई की खुशी में हमारी गली वालों ने कल दोपहर बाद एक दावत का इंतज़ाम किया है, और इस काम के लिए हर घर से बीस-बीस रुपये इकट्ठा किए गए हैं । कल चौधरी जी इस दावत में आएंगे तो तू उनको देख भी लेना और उनसे मिल भी लेना । अब सो जा”, कहकर चंदर ने दूसरी तरफ करवट बदल ली । चंदर की पत्नी ने लालटेन की बत्ती नीचे कर के उसे बुझा कर झोंपड़े में सोने चली गई ।
दूसरे दिन चंदर ने तो सुबह पाँच बजे ले लगभग बिस्तर छोड़ दिया, क्योंकि उसे अपना ज़रूरी काम निबटाना होता था, परंतु मोहन सात बजे तक सोता रहा । सुबह सात बजे जब मोहन की आँख खुली तो चंदर ने उसे लोटा थमा कर जंगल चलने को कहा । शौच आदि से निबटने के बाद जब वे घर आए तो चंदर की पत्नी ने पहले से ही नाश्ता लगा रखा था । हाथ मुंह धोने के बाद दोनों दोस्तों ने नाश्ता किया ।
नाश्ता करने के बाद चंदर ने अपने घर के साथ वाले खाली प्लॉट में नीम के नीचे चारपाई बिछा कर मोहन से कहा, “आओ मोहन ! यहाँ आकार बैठो, अब मैं तुम्हें अपनी बिरादरी का इतिहास बताता हूँ जो चौधरी जी की सज़ा से भी जुड़ा हुआ है ।” कुछ पल रुक कर अतीत को याद करके चंदर ने फिर कहना शुरू किया, “बात बहुत पुरानी है जब हमारी जाति के लोग जयपुर और उसके आसपास लगने वाले गाँव और जिलों में ही रहते थे । चमड़ा रंगाई और थोड़ी बहुत खेती या जूती गांठ कर अपना गुज़रा करते थे । गरीब और दलित समाज का होने के कारण ठाकुर और जमींदार इन लोगों से बेगार लेते रहते थे । विवश होकर यह सब उन्हें करना पड़ता था । इनकी औरतों को भी बेगारी करने के लिए ठाकुरों और जमींदारों के घरों की लिपाई, पुताई और पिसाई का काम करने जाना पड़ता था । कभी-कभी इन औरतों को इनके द्वारा शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता था । जब कभी भी इस समाज के किसी आदमी ने बेगारी करने से आनाकानी की या फिर कोई दूसरी मजबूरी जताई तो इनपर कड़े अत्याचार किए जाते थे, और तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थी । इन यातनाओं से घबराकर हमारे पूर्वजों ने धीरे-धीरे वहाँ से पलायन करना शुरू कर दिया । यह लोग अपनी सुविधा अनुसार दूसरे प्रान्तों में जाकर बसने लगे । इन्हीं लोगों में से बहुत से दिल्ली चले आए । सदर पहाड़ी इलाका जो उस समय एक खाली मैदान था वहाँ पर अपना आशियाना बना कर बसना शुरू किया । धीरे-धीरे ठाकुरों से पीड़ित हुए और भी गाँव वाले यहाँ आकर बसने लगे । समय के साथ-साथ यह स्थान एक घनी बस्ती में बदलता गया ।” चंदर की कहानी मोहन बहुत ध्यान से सुन रहा था ।
कुछ क्षण रुकने के बाद चंदर ने फिर कहना शुरू किया, “ कुदरत का नियम है कि एक ही समाज के लोग एक ही स्थान पर समूह के रूप में रहेंगे तो उनमे आपस में लड़ाई झगड़े भी होंगे और अन्य दूसरी बुराइयाँ भी उत्पन्न होंगी । इसलिए आपस में लड़ाई व अन्य बुराइयों को दूर करने के लिए एक पंचायत का गठन किया गया । इस पंचायत के लिए पाँच चौधरी नियुक्त किए गए थे । श्री पदम सिंह जी के पिताजी श्री हीरालालजी सककरवाल भी उनमें से एक चौधरी थे ।
यह बात लगभग 1895 के आसपास की रही होगी, उस समय दिल्ली का विकास हो रहा था, नए नए भवन बन रहे थे । मेहनती होने के कारण इन निर्माण कार्यों में इन लोगों को मजदूरी का काम आसानी से मिल जाता था । जिन लोगों के पास थोड़ी बहुत पूंजी थी, उन्होंने अपने स्वयं के काम धंधे करने शुरू कर दिये । इन्हीं धंधों में प्रमुख था जूते-स्लीपर बनाना । बल्ली मारान जूते-स्लीपर के ख़रीदारी का थोक बाज़ार था । माल तैयार होने पर यहाँ के व्यापारियों को बेच कर अच्छा मुनाफा कमा लिया करते थे । जूते-स्लीपर में इस्तेमाल होने वाले चमड़े की कमी होने एक बहुत बड़ी अडचन थी । चमड़ा खरीदने के लिए करखानादारों को कानपुर या अन्य दूसरी जगहों पर जहां टेनरियां (चमड़ा रंगाई के कारखाने) थीं जाना पड़ता था । इस कारण इनका समय और पैसा भी बर्बाद होता था ।
मोहम्मद असलम नाम के एक थोक व्यापारी ने तकलीफ को महसूस किया । वह एक चतुर व्यापारी था, और जानता था की जूतों के सोल का चमड़ा अगर इन लोगों को यहीं आसानी से मिल जाये तो इनके द्वारा तैयार माल उसे (असलम को) कम दाम पर मिल सकता है । यही सोच कर एक दिन उसने हमारी बस्ती में आकर सभी लोगों को इकठ्ठा कर करके कहा, “ भाइयों ! मैं जानता हूँ कि जूते-स्लीपरों के लिए सोल लगाने वाला चमड़ा खरीदने के लिए आप लोगों को बाहर जाना पड़ता है, इसीलिए आपकी बचत भी कम हो जाती है तथा समय भी बर्बाद होता है । मैंने यह सोचा है कि आप लोग सोल का चमड़ा यहीं तैयार करें । मुझे अच्छी तरह मालूम है कि दिल्ली में बसने से पहले आपमे से बहुत से लोग चमड़ा रंगाई का भी काम करते थे, इसलिए आप क्यूँ ना चमड़ा रंगाई काम भी यहीं शुरू कर दें, जिससे आप लोगो समय और पैसा दोनों ही बचेंगे ।
“असलम भाई!” बात काटते हुए एक व्यक्ती ने उठ कर कहा, “आपका सुझाव तो बहुत अच्छा है परंतु इस बस्ती में इतनी जगह तो है नहीं कि हम चमड़ा रंगाई के कारखाने लगा सकें ।”
“बात तो आपकी वाजिब है” असलम नें कहा “परंतु मुनाफा बढ़ाने और समय बचाने के लिए रंगाई के कारखाने लगाना बहुत ज़रूरी है । इस काम में आप लोगों की पोरी मदद करूंगा ।” “वह कैसे?” एक दूसरे आदमी ने टोकते हुए पूछा ।
“देखो भाइयों इस काम के लिए ज़मीन की ज़रूरत है । ज़मीन अलाट करवाने के लिए मैं आप लोगों को साथ लेकर एक अंग्रेज़ अफसर ‘सर बीडन’ से मिलूंगा । बीडन साहब एक दयालु स्वभाव के व्यक्ती हैं और मुझसे वाकिफ भी हैं । मुझे पूरी उम्मीद है कि वे हमारी फरियाद सुनकर ज़मीन अवश्य ही अलाट कर देंगे । अब मैं चलता हूँ और जल्दी ही बीडन साहब से मिलकर आप लोगों के लिए उनसे मिलने का समय माँगूंगा” इतना कह कर असलम ने विदा ली और चले गए ।
बीडन साहब से मिलवाने की असलम की कोशिश जल्दी ही पूरी हो गई । बीडन साहब ने बस्ती के लोगों से मिलने की हाँ कर दी तथा दिन व समय भी निश्चित कर दिया । असलम नें बस्ती में जाकर लोगों को यह जानकारी दी तथा ठीक समय पर पहुँचने की ताकीद की ।
मेट काफ हाउस के पास एक खूबसूरत बंगला, बंगले के चारों ओर ऊंची चार दीवारी । गेट पर दो जवान बंदूक थामे मुस्तैदी से पहरे पर डटे हुए थे । निश्चित तारीख को ठीक समय पर बस्ती के खास खास लोग बीडन साब की कोठी पर पहुँच गए थे । असलम भाई जो पहले से ही वहाँ मौजूद थे, बस्ती के लोगों को पहुँचते ही गेट पर खड़े संतरी को अंदर जाकर बीडन साब को इन लोगों के आने की सूचना देने को कहा । बाहर आ कर संतरी ने गेट खोल कर इन लोगों को अंदर जाने को कहा ।
जब वे लोग अंदर गए तो देखा की बीडन साब बंगले के बाहर लान में कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पढ़ने में तल्लीन थे । आहट सुनकर साहब ने सिर उठा कर देखा, आने वाले सभी लोग हाथ जोड़े खड़े थे । बीडन साहब ने इशारे से सभी को बैठ जाने के लिए कहा ।
इशारा पा कर सभी हरी हरी मखमली घास पर बैठ गए तो बीडन साहब ने कहना शुरू किया, “आप लोगों की तकलीफ के बारे में असलम नें हमें बताया था, उस पर हमने विचार किया और इस नतीजे पर पहुंचे की आपकी बस्ती के पास जो ईदगाह है उसके पिछली तरफ खाली मैदान है उसे हम टेनरियाँ लगाने के लिए आपको अलाट कर दें । यह जगह आबादी से दूर भी है जिससे शहर में गंदगी नहीं फैलेगी । दो चार दिन में ही कुछ सरकारी कर्मचारी भेजूँगा । आप सभी लोग उन्हें अपना नाम लिखवा देना ताकि वो आपको प्लाट अलाट कर सकें । यह सुनकर बस्ती के लोग नीडन साहब की जय जय जयकार करते हुए बंगले से बाहर आ गए तथा बस्ती में जाकर यह खुशखबरी सभी को सुनाई ।
(बीडन साहब ने जो स्थान इन लोगों को टेनरिया लगाने के लिए अलाट लिया था वह फैज रोड कहलाता है तथा अब वहाँ जोशी हॉस्पिटल है – लेखक)
चंदर ने इतनी कहानी बता कर मोहन से कहा, “मोहन ! बाकी की कहानी समय मिला तो आज रात या कल इसी समय सुनाऊँगा, क्योंकी थोड़ी देर में ही चौधरी साहब के दावत में आने का समय भी हो जाएगा । मैं जाकर दावत की तैयारी देखता हूँ” । कहकर चंदर चला गया ।
पूरी गली में चाँदनी (शामियाने) और कनातें लगा दी गई थी । फूल पत्तों से द्वार सजाया गया था । गली के ठीक बीचों बीच चार तख्त बिछा कर उन पर 10-12 कुर्सियाँ रखवा दी गई थी, ताकि चौधरी जी और तोतराम जी के साथ गली के और भी खास खास लोग बैठ सकें । स्त्री-पुरुषों तथा अन्य दर्शकों के लिए दरियाँ बिछी हुई थी जिन पर बैठे हुए स्त्री-पुरुष और बच्चे बड़ी आतुरता से चौधरी जी के आने की प्रतीक्षा करते हुए प्रवेश द्वार की ओर टकटकी लगाए देख रहे थे ।
गेहूंवा रंग, सफ़ेद मुंछे, खादी का सफ़ेद कुर्ता, उस पर जवाहर कट जाकेट, खादी की सफ़ेद धोती तथा खादी की ही सफ़ेद टोपी लगाए हुए चौधरी जी ठीक चार बजे श्री तोतराम जी के साथ दावत स्थल पर पहुंचे । द्वार पर पहुँचते ही गली के खास खास लोगों नें जिनमे कनहैया लाल जी (खजांची) गणेश पटेल भी थे ने फूल मालाएँ पहना कर उन दोनों अतिथियों का स्वागत किया ।
स्वागत हो चुकने के पश्चात दोनों अतिथियों को स्टेज की ओर ले जाया गया जहां उनके लिए कुर्सियाँ बिछी हुई थी । चौधरी जी जैसे ही कुर्सी पर बैठे तो पण्ड़ाल में बैठे हुए सभी स्त्री-पुरुष और बच्चे उठ खड़े हुए और जा जाकर उनके चरण स्पर्श करने लगे । मोहन एक कोने में खड़ा अवाक सा एक देव पुरुष समान व्यक्ती को चरण स्पर्श करने वाले सभी को आशीर्वाद देते हुए देख रहा था । उसने भी स्टेज पर जा कर चरण स्पर्श करके आशीर्वाद पाया । जब यह क्रम समाप्त हुआ तो चौधरी जी ने एक संक्षिप्त सा भाषण दिया ।
भाषण के प्रारम्भ में उन्होने सबसे पहले समाज के उन स्त्री-पुरुषों को धन्यवाद किया जिनहोने उनकी रिहाई की पैरवी करने के लिए रुपए-पैसे और गहनों का दान किया था तथा पैरवी के समय और उसके बाद उनके परिवार की सहायता की तथा सहयोग किया था । फिर आप बीती बताते हुए कहा, “आप लोगों द्वारा भेजे गए धन से हमारी पैरवी करने के लिए अच्छा सा वकील किया गया था, परंतु बेकसूर होते हुए भी हमारी उम्र क़ैद की सज़ा बहाल राखी गई । मैं और तोताराम जी एक ही सेल में थे और मोटा राम दूसरे सेल में । सज़ा के तौर पर हमसे कठोर परिश्रम करवाया जाता था । मैं ऐसे परिश्रम करने का आदि तो नहीं था इसलिए कई बार तो जीवन से निराश हो जाता था, परंतु तोतराम जी मुझे ढाढ़स बँधाते रहते थे । अगर तोता राम जी मेरे साथ नहीं होते तो मैं भी आज आप लोगों के बीच नहीं होता ।
मोटा राम जी के अलग सेल में होने के कारण मुझे यह पता नहीं चल सका की उन्हें भी रिहा कर दिया गया था या नहीं, परंतु दिल्ली पहुँचने पर मुझे यह जानकारी मिली कि वे अभी तक अपने घर नहीं पहुंचे हैं । उनका अभी तक अपने घर न पहुँचने का मुझे बहुत दुख है ।
मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह भी शीघ्र ही दिल्ली पहुँच कर अपने परिवार से मिल सकें । इसके साथ ही चौधरी जी ने थोड़ा रुककर पानी पिया और उसके बाद फिर कहना शुरू किया, “दिल्ली पहुँचते ही सबसे पहले मैंने लाला देशबंधु गुप्ता जी के घर जाकर उनको अपने रिहा होने की सूचना दी तथा जेल में रहते हुए उन्होने जो हमारी मदद मदद की थी उसका धन्यवाद किया ।
लाला देशबंधु जी से मेरा परिचय जेल में रहते हुए ही हुआ था । वह एक राजनीतिक क़ैदी की हैसियत से सज़ा काट रहे थे, इसलिए उन्हें वहाँ बहुत सी सुविधाएं मिली हुई थीं । प्रथम परिचय पर ही मैंने “लाला जी” को बता दिया था कि मैं भी गांधी जी की विचारधारा में पक्का विश्वास रखता हूँ और काँग्रेस पार्टी का एक सक्रिय सदस्य भी हूँ । मेरे स्वभाव और अच्छे आचरण के कारण वे मुझसे विशेष स्नेह रखते थे । उनके प्रभाव के कारण ही जेल में हमारे से अधिक परिश्रम नहीं करवाया जाता था ।
फुर्सत के समय अक्सर वे मुझसे मिलने मेरे सेल में चले आते थे और भारत की राजनीति तथा काँग्रेस पार्टी के बारे में ताजा समाचार बताते रहते थे । एक दिन बातों ही बातों में मैंने “लाला जी” जी को बताया कि हमारी पहाड़ी धीरज वाली बस्ती में एक बार गांधी जी आए थे और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर गलियों तथा सड़कों की सफाई की थी । उस समय मैं भी उनके साथ था और उस नेक काम में मैंने भी हिस्सा लिया था ।
भारत को अँग्रेजी हुकुमत से आजाद करवाने के लिए गांधी जी ने अहिंसा का रास्ता चुना था इसलिए मैं भी गांधी जी की विचारधारा से बहुत प्रभावित था । अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए उन्होने भारत को अँग्रेजी हुकूमत से आजाद करवाने की लड़ाई लड़ी । इसी कारण कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा और कई प्रकार की यातनाएँ भी सहीं ।
जेल में रहते हुए मेंने भी मन में ठान लिया था कि रिहा होने के बाद आजादी की लड़ाई में मैं भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लूँगा, परंतु मुझे इस सेवा का अवसर नहीं मिला क्योंकी उस समय हम जेल में ही थे, परंतु मुझे इस बात की खुशी है कि मेरी गैर मौजूदगी में मेरे पुत्र गौतमसिंह ने घर परिवार संभालने के साथ साथ स्वतन्त्रता की लड़ाई में अपना योगदान दिया ।
15 अगस्त 1947 को गांधी जी व अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों के प्रयासों के कारण हमारा हिंदुस्तान अँग्रेजी हुकूमत से आजाद हो गया । अंग्रेज़ यह देश छोड कर चले गए, परंतु जाते-जाते इस देश का बंटवारा भी कर गए । हिंदुस्तान से अलग हुए हिस्से का नाम पाकिस्तान रखा गया । जिस जेल में हम सज़ा काट रहे थे वह लाहौर में है और लाहौर अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका है ।
कुछ क्षण रुक कर चौधरी जी ने फिर कहना शुरू किया, “सन 1947 के सितंबर महीने के पहले हफ्ते में हमारी रिहाई का आदेश आया । हम अपनी रिहाई से बहुत खुश थे की अपने परिवार और समाज के लोगों से एक बार फिर मिल सकेंगे ।
रिहाई का आदेश आने के अगले ही दिन हमें रिहा कर दिया गया । पाकिस्तान की पुलिस ने हमें “अटारी” बार्डर तक पहुंचाने का प्रबंध कर दिया था । अटारी बार्डर से हम अमृतसर तक आए तथा रेल द्वारा दूसरे दिन दिल्ली पहुंचे । आज मैं आप लोगों के बीच यहाँ हूँ और हमारे स्वागत करने का आप सब का धन्यवाद करता हूँ ।” इतना कहकर चौधरी जी अपनी कुर्सी पर बैठ गए ।
श्री गणेश पटेल जी ने अतिथियों के दावत में आने का आभार व्यक्त करते हुए उन्हें भोजन करने को कहा । स्टेज से कुर्सियाँ हटा दी गई, तथा थालियों में सभी के लिए भोजन परोस दिया गया । भोजन समाप्त करके दोनों अतिथियों ने दावत में बुलाये जाने का धन्यवाद करते हुए अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान किया ।
रात आठ बजे तक गली के सभी स्त्री-पुरुषों ने भी भोजन कर लिया था । स्टेज, चाँदनी और कनाते हटाई जा चुकी थीं । स्त्री-पुरुषों ने मिलकर अन्य दूसरे काम निबटा दिये । काम खत्म होने के सभी अपने-अपने घरों में चले गए । चंदर और मोहन जब घर पहुंचे तो देखा कि दो चारपाइयाँ बिछी हुई थी और उन पर बिस्तर भी लगा हुआ था । चंदर कि पत्नी ने उन्हें आया देख हुक्का भी तैयार करके रख दिया । हुक्के का घेंटू खींचकर और धुआँ बाहर फेंकते हुए मोहन ने कहा, “दोस्त! मैं तो अपने आप को खुशनसीब ही कहूँगा कि ऐसे महापुरुष के दर्शन हुए । मेरे मन में अभी तक भी यह जाने कि जिज्ञासा बनी हुई है कि ऐसे महापुरुष को किस अपराध में सज़ा मिली ।”
चंदर ने कहा, “यह सब भाग्य का खेल है । भाग्य में लिखे को कौन मिटा है । भाग्य में लिखा होने के कारण सत्यवादी हरिश्चंद्र को अपना राज-पाट छोडना पड़ा । भाग्य में लिखा होने के कारण श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों का वनवास भुगतना पड़ा । चौधरी जी के भी भाग्य में लिखा होने के कारण बिना अपराध किए जेल कि सज़ा काटनी पड़ी । उनके जेल जाने के बारे में मैं कल विस्तार से बताऊंगा, अभी हम सो जाते हैं । दिन भर कि थकान के कारण दोनों को जल्दी ही नींद आ गई ।
दूसरे दिन नाश्ता आदि कर चुकने के पश्चात इसी खाली प्लॉट में नीम के नीचे चंदर ने दो चारपाई बिछा दी तथा हुक्का भरकर वहाँ बैठ गए । हुक्का गुडगुड़ाते हुए चंदर नें मोहन से कहा, “मोहन! कल मैंने तुम्हें बताया था कि बीडन साहब कि कृपा से हमें रंगाई के कारखाने चलाने के लिए ज़मीन आलाट कर दी गई थी । धीरे-धीरे हम लोगों ने अपनी-अपनी पूंजी के अनुसार रंगाई के कारखाने लगाकर चमड़ा तैयार करना शुरू कर दिया । अच्छी क्वालिटी का चमड़ा होने के कारण दूसरे प्रान्तों से भी खरीदार आने लगे । इस प्रकार हम लोगों कि कमाई अच्छी होने लगी । अच्छी कमाई के चक्कर में रैगर समाज के साथ-साथ दूसरे समाज के लोग भी राजस्थान और दूसरे प्रान्तों से आकर इन्हीं कि बस्ती में बस्ते चले गए । इन लोगों ने रोजी-रोटी कमाने के लिए रंगाई के कारखानों में मजदूरी करने के अलावा अन्य दूसरे काम भी अपनाने चुरू कर दिये जैसे बेलदारी, मिल में नौकरी या छोटी-मोटी सी दुकान करके अपना गुज़ारा करने लगे ।
पदम सिंह जी के पिताजी नें ऊंचे वर्ग के समाज से प्रेरित होकर अपने पुत्र को पढ़ाया लिखाया और युवा होने पर उन्हें पंचायत के गुर सिखाये । वृद्धावस्था अधिक होने के कारण इनके पिताजी बीमार रहने लगे थे, इसलिए अधिकतर पदमसिंह जी ही पंचायत में भाग लेते थे । अपने पिताजी की मृत्यु के पश्चात समाज के नियम के अनुसार इन्हें चौधरी बना दिया गया । अपनी आजीविका चलाने के लिए इन्होनें स्लीपर बनाने का छोटा सा कारख़ाना लगा रखा था जिसे अपने छोटे भाई ज्योति प्रसाद के साथ मिलकर चलाते थे । पंचायत के लिए भी पर्याप्त समय देकर बिना किसी का पक्षपात किए न्याय करते थे, इसलिए समाज के लोग इन्हें बहुत चाहते थे ।
प्रारम्भ से ही पदमसिंह जी महात्मा गांधी और नेहरू जी से प्रेरित थे इसलिए राइगार समाज के साथ-साथ देश सेवा में भी अपना भरपूर योगदान देते रहते थे । आर्य समाजी होने के साथ कांग्रेस पार्टी के भी सक्रिय सदस्य थे, इसी कारण उनका दिल्ली के कांग्रेसी नेताओं तथा आर्य समाज के दिग्गज पुरुषों से बहुत अच्छा परिचय था ।
पढे-लिखे होने के कारण उन्होनें अपने समाज के लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाने पर बल दिया । उनकी प्रेरणा पाकर समाज के बहुत से लोगों ने अपने-अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल भेजना शुरू किया । इन्हीं के सतत प्रयत्नों द्वारा बालिकाओं के लिए भी ‘आर्य कन्या पाठशाला’ आरंभ की गई जिससे समाज में स्त्री शिक्षा का अच्छा और प्रभावी विस्तार हो सका ।
समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा । बस्ती के लोग अपना-अपना कारोबार करते हुए खुशहाल जीवन बिता रहे थे । यह सिलसिला लगातार इसी तरह कई वर्षों तक चलता रहा, परंतु इन लोगों के भाग्य में कुछ और ही लिखा था ।
सन 1913 के नवंबर महीने का एक दिन, जो इनकी जिंदगी में भूचाल सा लेकर आया । दिवाली मनाने के कुछ ही दिन बाद इन्हें एक नोटिस मिला जिसमे लिखा था कि रंगाई के कारखाने वाली बस्ती यहाँ से शीघ्र ही हटानी है क्योंकि यह स्थान अफसरों के लिए कोठियों तथा एक बड़ा पार्क बनाने के लिए अलाट किया जा चुका है । बस्ती हटाने का समय दिया गया था केवल दो महीने ।
जब यह बस्ती बसाई गयी थी तो इससे पहले यहाँ बाग ही बाग थे । वर्तमान अजमल खाँ पार्क भी उन्हीं बागों का एक हिस्सा था । यहाँ के निवासी इस बस्ती को बाग के नाम से ही संबोधित करते थे । कालांतर में इसका नाम करोल बाग रखा गया – लेखक ।
मोहन ने हैरानी से कहा, “इस प्रकार तो बस्ती वालों का कारोबार उजड़ने की नौबत आ गयी होगी । नोटिस की कार्यवाही रोकने के लिए क्या बस्ती के लोग बीडन साहब से नहीं मिले ?
“मिले थे भाई !” चंदर ने कहा, “बीडन साहब जैसे दयालु इन्सान की वजह से आज हम लोग यहाँ आबाद हैं, और कारोबार भी कर रहे हैं । इतना कहकर चंदर ने हुक्के की घूंट् भरी, लेकिन वह तो ठंडा हो चुका था । चंदर ने अपनी पत्नी को हुक्का ताज़ा करने कि आवाज़ लगाई तथा फिर घटनाक्रम के बारे में मोहन को बताना शुरू किया, “जैसे ही बस्ती वालों को नोटिस मिला तो उन्होने आपस में बैठ कर फैसला किया कि हमें तुरंत ही बीडन साहब से मिलकर नोटिस की कार्यवाही रोकने की प्रार्थना करनी चाहिए । सभी कि सहमति से कुछ जिम्मेदार लोगों को बीडन साहब से मिलने भेजा गया । मिलने गए लोगों को सम्मान पूर्वक बैठा कर बीडन साहब ने उनसे कहा, “मैं तो पहले से ही जानता था कि नोटिस मिलने के साथ ही आप लोग मुझसे मिलने जरूर आएंगे । आप लोगों को बस्ती खाली कराने का नोटिस भेजने पर मुझे बहुत दुख है, परंतु ऊपर से ऑर्डर आने के कारण मैं भी मजबूर हूँ क्योंकि इस स्थान पर अफसरों व अन्य सरकारी कर्मचारियों के लिए कोठियाँ तथा मकान बनाए जाने हैं ।
नोटिस भेजने से पहले एक मीटिंग में हमारे द्वारा एक निर्णय लिया गया था कि आप लोगों को बस्ती खाली कराने से पहले किसी दूसरी जगह पर बसाया जाये इसलिए सरकार कि तरफ से एक बहुत बड़ी योजना तैयार कि गयी है । इस योजना के बारे में मैं आप लोगों को ब्लैक बोर्ड पर नक्शा बनाकर समझाता हूँ” कहकर बीडन साहब नें अपने अर्दली को ब्लैक बोर्ड लाने का आदेश दिया । अर्दली नें ब्लैक बोर्ड लाकर उसे स्टैंड पर लगा दिया तो बीडन साहब नें मिलने गए लोगों से कहा, “अब आप सभी लोग इस बोर्ड की तरफ देखते हुए मेरी बातें ध्यान से सुनें ।” कहकर बीडन साहब नें बोर्ड पर एक लकीर खींचकर कहा, “यह एक बरसाती नाला है और इस नाले के दोनों तरफ अभी तक खेती होती है । अब ये खेत जमींदारों को मुआवजा देकर सरकार ने ले लिए हैं । इस नाले के पश्चिम वाली ज़मीन आप लोगों को रहने और टेनरियाँ लगाने के लिए दी जाएंगी । बस्ती में रहने वाले हर परिवार को प्लाट दिये जाएंगे । मालिकाना हक़ के लिए हर प्लाट कि नजूल में रजिस्ट्री होगी । ये प्लाट 99 साल की लीज पर दिये जाएंगे । हर प्लाट के मालिक को छह-माही लीज सरकार को देनी पड़ेगी । प्लाट इस प्रकार काटे गए हैं कि हर गली दोनों तरफ मेन रोड से मिलेगी, गलियाँ भी काफी चौड़ी होंगी । इन प्लाटों में कुछ प्लाट कुओं और मंदिरों के लिए छोड़े गए हैं । इस बस्ती में कुल 81 गलियाँ होंगी । खटीक समाज कि आबादी कम होने के कारण गली नंबर 80-81 के प्लाट इन लोगों को अलाट किए जाएंगे यहाँ ये रहने के साथ-साथ रंगाई का काम भी कर सकते हैं । आप लोगों कि आबादी अधिक होने के कारण इस बस्ती का नाम “रैगर पुरा” रखा गया है ।
पुरानी बस्ती छोडने के लिए आप को 2 महीनों का समय दिया गया है । इन दो महीनों में आप अपने-अपने नामों से रजिस्ट्रियाँ करवा कर यहाँ बसना शुरू कर सकते हैं । सादर पहाड़ी धीरज वाली बस्ती के लोग भी चाहें तो यहाँ प्लाट ले सकते हैं । अगर प्लाट लेने वाले अधिक हो जाने के कारण प्लाट कम पड़ जाते हैं तो नाले के पूरब के तरफ भी कालोनी बना कर प्लाट दिये जाएँगे, परंतु इस योजना में कुछ समय लग सकता है । जिस नाले का अभी मैंने जिक्र किया है वह शीघ्र ही पक्का बना दिया जाएगा । अब आप लोग जाकर बस्ती वालों को यह जानकारी दें ताकि वे नई बस्ती में जाने की तैयारी में लग जाएँ ।” इतना कहकर बीडन साहब कोठी के अंदर चले गए और बस्ती के लोग भी अपने-अपने घरों को लौट गए ।
मोहन ने अंदर से सवाल किया, “क्या बीडन साहब की इस नई स्कीम से बस्ती वाले संतुष्ट भी हुए थे या नहीं ?
“यह मैं थोड़ी देर में बताऊंगा, अभी मुझे कुछ ज़रूरी काम निबटाने हैं, तथा उसके बाद खाना भी खाना है” । कहकर चंदर अपना ज़रूरी काम निबटाने में जुट गया । काम निबटा कर दोनों दोस्तों ने खाना खाया और हुक्का ताज़ा करके फिर वहीं आ बैठे तो चंदर ने अपनी कहानी आगे बढ़ाते हुए कहा, “बीडन साहब से मिलने गए व्यक्तियों ने बस्ती के लोगों को इकठ्ठा करके बीडन साहब की योजना के बारे में पूरे विस्तार से बताया जिसे सुनकर सभी लोग बहुत खुश हुए और नई कालोनी में बसने का निश्चय कर लिया ।
बीडन साहब ने अपने वादे के मुताबिक नाले को पक्का करवा दिया था । बस्ती के लोगों को रजिस्ट्रियाँ करवाने के बाद प्लाट मिलने शुरू हो गए थे और वहाँ पर बस कर अपना-अपना कारोबार करने लगे । इस प्रकार 1914 से रैगर पुरा आबाद होना शुरू हुआ और पाँच साल बाद सन 1919 में नाले के पूर्वी भाग की तरफ एक दूसरी कालोनी बसाई गई, जिसका नाम बीडन साहब के नाम से बीडन पुरा रखा गया ।
सन् 1935 के प्रारम्भ में पहाड़ी धीरज वाली बस्ती को भी खाली करवा लिया गया क्योंकी उस स्थान पर सादर पोलिस थाना बनना था । इस बस्ती को वहाँ से हटा कर रैगर पुरा के साथ लगती हुई पश्चिम की तरफ तीसरी कालोनी बसाई । इस कालोनी में कुल 10 ब्लॉक थे और हर ब्लॉक में 4 से लेकर 7 गालियां थी । रैगर पुरा और बीडन पुरा की भांति ही इन ब्लॉकों की गलियां भी खूब चौड़ी और दोनों तरफ से मेन रोड से मिलती थी ।
चौधरी पदमसिंह जी को ब्लॉक 2 गली 1 में सड़क के किनारे वाला प्लाट अलट हुआ था । आर्य समाजी होने के कारण चौधरी जी नें अपने प्लाट में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें आर्य समाज के दिग्गज पुरुषों और संतों नें भाग लिया था । इसी यज्ञ के दौरान इस कालोनी का नामकरण हुआ और इसका नाम “देवनगर” रखा गया ।
रैगर पुरा सबसे पहले आबाद होने के कारण कुछ मालदार व्यक्तियों ने एक मंज़िले या दो मंज़िले पक्के मकान बनवा लिए थे परंतु गरीब लोग अभी भी फूंस की बनी हुई कच्ची झोपड़ी या खपरैल की छत के मकानों में ही रहते थे । जिनके मकान सड़क के किनारे थे उन्होनें दुकानें बनवा कर भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वालों को किराए पीआर उठा रखी थी । ऐसी ही कुछ दुकानें कसाइयों नें किराये पर ले रखी थी जो भेड़ बकरी और भैंस का मांस बेचने का कारोबार करते थे । सभी लोग अपना-अपना कारोबार करते हुए अमन-चैन का जीवन बिता रहे थे ।
भैंस का मांस खाना हमारे समाज में अच्छा नहीं समझा जाता था, परंतु गरीब लोग कभी-कभी भेड़, बकरी के बदल भैंस का मांस भी खा लिया करते थे । कुछ ऐसे भी लोग थे जो भैंस का मांस शौकिया तौर खाया करते थे । मांस खरीदने कसाई की दुकानों पर जैसे अन्य समाज के स्त्री-पुरुष जाते थे वैसे ही हमारे समाज स्त्री-पुरुष भी मांस खरीद लाया करते थे ।
हमारे समाज की औरतों का कसाइयों की दुकानों पर जा कर मांस खरीदना बदनामी का कारण बनता जा रहा था, क्योंकि कुछ औरतें पैसों के लालच या हवस के कारण इन कसाइयों के चंगुल में फँसती जा रही थी । इस बुराई के कारण स्कूल के छात्रों को दूसरे सहपाठियों से तथा समाज के इज्जतदार लोगों को दूसरे समाज के लोगों के ताने सुनने को मिलने लगे । पंचों के लिए भी यह एक चिंता का विषय था, इसलिए शीघ्र ही बिरादरी की बड़ी पंचायत बुलाई गयी । पंचायत में सभी की सहमति से यह निर्णय लिया गया की आज के बाद कोई भी रैगर समाज की औरत मांस खरीदने कसाइयों की दुकान पर नहीं जाएगी तथा हमारे समाज का कोई भी व्यक्ति भैंस का मांस नहीं खाएगा । अगर कोई भी स्त्री-पुरुष इस फैसले का उल्लंघन करता हुआ पाया जाएगा तो पंचायत के नियम के मुताबिक दंड का भागीदार होगा । इस फैसले के डर से औरतों का तो कसाइयों की दुकान पर जाना पूरी तरह से बंद हो गया, परंतु भैंस का मांस खाने के शौकीन समाज के कुछ व्यक्ति भैंस क मांस खाते हुए कई बार पकड़े गए और दंड के भागीदार हुए । समाज का यही वर्ग पंचों से बैर रखने लगा । उधर कसाई भी इस फैसले से बौखला गए पंचों से बदला लेने की फिराक में रहने लगे ।”
चंदर नें कुछ क्षण रुक कर फिर कहना शुरू किया, “कहते हैं होनी को कोई नहीं ताल सकता । बदकिस्मती से गेंद कसाइयों के पाले में आ गिरी और उन्हें शीघ्र ही पंचों से बदला लेने का अवसर मिल गया ।
“वह कैसे ?” चंदर नें सवाल किया । “भी बताऊंगा, पहले मैं हुक्का ताज़ा कर लाऊं ।” चन्दर नें कहा, और हुक्का ताज़ा करने चला गया ।
हुक्का ताज़ा करके चन्दर अपनी चारपाई पर आ बैठा और कुछ याद करते हुए अगले घटनाक्रम के बारे में बताना शुरू किया, “यह घटना सन 1937 की है जब हमारे समाज के कुछ बच्चे अचानक लापता होने लगे । लोगों को यह शक था की कोई उन्हें उठा कर ले जाता है । भविष्य में कोई और बच्चा चोरी ना हो इसलिए बस्ती वाले अधिक सावधान रहने लगे और रात को भी बारी-बारी से पहरा देने लगे ।
एक दिन दोपहर के समय कुछ लोगों ने तांगा स्टैंड के पास ऐसे आदमी को देखा जिसने कला सा लबादा ओढ़ रखा था । सतर्क लोगो नें उसे पकड़कर मारना शुरू किया . मार खाते-खाते जब अधमरा सा हो गया तो उसके पांव बान्ध कर घसीटते हुए शमशान की ओर ले चले ताकि उसे जलाया जा सके । भीड़ जैसे ही चौधरी जी के मकान के पास पहुंची तो किसी ने शोर मचा दिया – पुलिस आ गई । पुलिस का नाम सुनते ही उस आदमी को जो कंकर पत्थरों वाली कच्ची सड़क पर घसीटे जाने के कारण मर चुका था छोडकर घसीटने वाले लोग भाग खड़े हुए ।”
“फिर क्या था, थोड़ी देर में पुलिस गई और घटना की जांच करनी शुरू कर दी । इस घटना के बारे में अंग्रेज़ पुलिस वाले जब लोगों से पूछताछ कर ही रहे थे तो उन कसाई दुकानदारों में से एक कसाई जो पहले से ही मौके की तलाश में था ने आगे बढ़कर उन्हें बताया कि साहब मैंने अपनी आँखों से देखा है कि किन-किन लोगों ने इस आदमी को मारा है । अंग्रेज़ पुलिस अफसर ने उसे बेखौफ होकर कातिलों के नाम बताने को कहा ।
पंचों से बदला लेने का अच्छा मौका था इसलिए सबसे पहले उसने चौधरी पदमसिंह जी का नाम बताया फिर जो नाम उसे याद आए बताने लगा । उन नामों में श्री तोताराम जी, चौधरी नवलकिशोर जी, चौधरी कन्हैयालाल खजांची और मोटाराम हलवाई के नाम प्रमुख थे ।
अंग्रेज़ पुलिस अफसर ने पुलिस व्वलोन को अलग-अलग टुकड़ियों में भेजकर सभी को गिरफ्तार करके थाने में लाने का आदेश दिया और थाने में आकर गिरफ्तार लोगों का इंतज़ार करने लगा ।
डर के कारण तीनों बस्तियों के लोग अपने-अपने घरों में दुबक गए । बस्तियों में पूरी तरह सन्नाटा छा जाने के कारण करफ़्यू जैसा माहौल बन गया था ।
पुलिस कि एक टुकड़ी जब चौधरी कन्हैयालाल खजांची की घर पहुंची तो वह उस समय घर पर ही थे । पुलिस वालों नें उन्हें गिरफ्तार किया और थाने ले चले । रास्ते में चौधरी कन्हैयालाल जी अपनी चतुराई से पुलिस वालों को चकमा देकर उनकी आँखों से ओझल हो गए और पुलिस वाले हाथ मलते हुए थाने पहुंचे जहां उन्हें पुलिस अफसर की डांट खानी पड़ी । इस प्रकार चौधरी कन्हैयालाल जी अपनी सूझबूझ और बुद्धिमता का परिचय देकर एक बड़े संकट से बच गए ।
चौधरी नवलकिशोर जी को पुलिस की दूसरी टुकड़ी ने घर से गिरफ्तार करके थाने ले जाकर अंग्रेज़ अफसर के सामने पेश किया तो अंग्रेज़ अफसर नें उनको हवालात में बंद करने का हुक्म दिया । जब उन्हें हवालात में बंद करने ले जाया जा रहा था तो बहुत से मुसलमान भाई थाने पहुँच गए । उन्होनें पुलिस अफसर को बताया कि चौधरी नवलकिशोर जी तो बहुत नेक इंसान हैं, हम इन्हें अच्छी तरह जानते हैं । हमारी आपसे गुजारिश है कि आप इन्हें छोड दीजिये क्यूंकी इस केस में इनका कोई लेना देना नहीं है । उस समय अँग्रेजी हुकूमत में मुसलमानों कि बहुत चलती थी इसलिए उन लोगों के कहने पर चौधरी नवलकिशोर जी को छोड दिया गया ।
पुलिस का तीसरा दस्ता मोटाराम हलवाई को गिरफ्तार करने जब उनके घर पहुंचा तो वह घर से फरार हो गए थे क्योंकि उनको अपनी गिरफ्तारी के बारे में पहले ही भनक लग चुकी थी । पुलिस वाले जब खाली हाथ लौटने वाले थे तो गली से एक मोटा आदमी आता दिखाई दिया । शरीर से भारी-भरकम आदमी को आता देख एक पुलिसवाले नें उसे ही मोटाराम समझ कर दूसरे पुलिसवाले से पुलिसिया अंदाज़ में कहा, “अरे ये देखो साला खुद ही पिंजरे में फँसने चला आया मोटा” । इत्तेफाक से उस आदमी का नाम भी मोटाराम ही था । जब वह पास आया तो पुलिस के पूछने पीआर अपना नाम मोटाराम ही बताया । इस प्रकार मोटाराम हलवाई कि बदले दूसरा मोटाराम गिरफ्तार कर लिया गया ।
“ऊपर वाले के खेल भी निराले होते हैं । मोटाराम नें सपने में भी नहीं सोचा होगा कि थोड़ी देर बाद उनके साथ क्या होने वाला है” मोहन ने आह भरते हुए कहा ।
एक ही नाम के दो व्यक्ती होने के कारण पहचान के लिए एक मोटाराम जी कि आगे ‘हलवाई’ शब्द का प्रयोग किया है, वह वास्तव में हलवाई नहीं थे । उनके पुत्र ने हलवाई कि दुकान चलायी थी और हीरा हलवाई के नाम से मशहूर हुए – लेखक
“हाँ भाई तुम ठीक कहते हो जिस मोटाराम को गिरफ्तार किया था वह तो अमृतसर वाली गाड़ी से उतरकर अपने घर जा रहा था ।” चंदर नें घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हुए आगे कहना शुरू किया, “चौधरी तोताराम जी घर पर ही थे जब उन्हें गिरफ्तार किया गया ।
चौधरी पदमसिंह जी घटना से बिलकुल अंजान अपने छोटे भाई ज्योति प्रसाद कि आँख का इलाज करवा कर कुछ समय पहले ही घर पहुंचे थे । घर आकार उन्होनें खाना खाने के बाद हर रोज़ कि तरह पान खाया । पान चबाते हुए पान कि पीक अक्सर मुख्य दरवाजे के पीछे बनी नाली में थूक देते थे । हर रोज कि तरह उस दिन भी पान कि पीक थूकी परंतु इत्तेफाक से पैन कि पीक दरवाजे के पीछे रखी हुई बेंत पर जा गिरी । वह अभी पान चबा ही रहे थे कि पुलिस ने आकार उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया । सबूत के तौर पर पान में सनी हुई बेंत को खून में सनी हुई बता कर जब्त कर लिया गया ।
गिरफ्तारी के बाद तीनों पर मुक़द्दमा चलाया गया । झूठी गवाहियों के कारण उन्हें उम्र क़ैद की सजा हुई । लाहौर कि जेल में लगभग 9-10 साल कि सजा काट कर घर लौटे हैं और उनके घर लौटने कि खुशी में रैगर समाज द्वारा “आसोज” के महीने में दीये जला कर दिवाली मनाई है ।” इतना कहकर चंदर नें कहानी समाप्त कर दी ।
मोहन ने पूरी कहानी बड़ी ही उत्सुकता के साथ सुनी और खुशी प्रकट करते हुए कहा, “चंदर! तुमने रैगर समाज के एक ऐसे महापुरुष के बारे में जो ऐसी जानकारी दी उसे सुनकर उझे बहुत प्रसन्नता हुई । मेरी तो बस ईश्वर से ये ही प्रार्थना है कि चौधरी पदमसिंह जी दीर्घायु होकर रैगर समाज कि उन्नति में अपना सहयोग देते रहें, और साथ ही साथ राजनीति में भाग लेते हुए देश की सेवा भी करते रहें ।” मोहन ने थोड़ा रुक कर कुछ सोचते हुए चंदर से फिर कहा, “चंदर! अभी-अभी मेरे मन में विचार आया है कि गाँव जाकर यही कहानी मैं गाँव वालों को भी सुनाऊँगा येही कहानी सभी गाँव वाले दूसरे गांवों में भी सुनाएँगे । इस प्रकार चौधरी जी कि कीर्ति गाँव-गाँव में फैलेगी और समाज के लोगों को शिक्षा मिलेगी । अच्छा ‘मोहन’ ! चंदर नें कहा, “मैं अभी रात के खाने का इंतजाम करता हूँ, क्योंकि कल तुझे गाँव भी वापस जाना है, कह कर चंदर नें जीएचआर से थैला लिया और बाहर कि ओर चला गया ।
“ इति ”
(साभार- आसौज में दिवाली)
रमेश चन्द जलूथरिया (लेखक)
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