आज देश के दलित-आदिवासी संगठनो पर नजर डाले तो, आज देखेगें की इन संगठनों का महत्व नही के बराबर है। वे कौनसे कारण है कि यह संगठन ना तो, समाज को संगठित करने में सफल हुए, ना ही इनके अधिकारों की सुरक्षा देने में।
आप इन संगठनो पर नजर डाले तो एक बात बहुत स्पष्ट नजर आती है कि इन सभी संगठनो की लीडरशिप पर ब्योरोक्रेट/नौकरशाहों का कब्जा हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये लोग इन संस्थाओं पर कब्जा भी तब करने आते है, जब सरकार इन्हें घर भेज देती है अर्थात् रिटायर्ड कर देती हैं।
मेरी समझ में यह नही आता है कि आखिर यह लोग उम्र के अन्तिम पड़ाव में ही इन संस्थाओं का नेतृत्व करने क्यों आ जाते है, जबकि यह बहुत अच्छी तरह जानते है कि उम्र के अन्तिम पड़ाव में, यह समाज को नेतृत्व नही दे सकते, ना ही उम्र व परिस्थितियाॅ इसकी अनुमति देती है क्योकि जिसे सरकार ने रिटायर्ड कर, घर भेज दिया हो। जो सरकारे, दुनिया के बड़े-बड़े राजतंत्र को चलाती हो, उन्हें नही लगता है कि उम्र के अन्तिम पड़ाव में, इनकी कोई सलाहकार या मार्गदर्शक भूमिका भी बनती हो।
सरकार जिसे 60 वर्ष में पद मुक्त करती हो तथा 21 वर्ष में नियुक्ति देती हो। जब सरकार आई.ए.एस का चुनाव 21 वर्ष की आयु में कर, एक जिले का मुखिया बनाती है और उसे लिडरशिप का मौका देती है और वह सफल भी होता है और 60 वर्ष की उम्र में रिटायर्ड कर देती है ।
जब समाज का मुखिया बनने की बात आती है तो फिर यह उम्र 60 के बाद कैसे प्रारम्भ होती हैं। यही सबसे बड़ी समस्या की जड़ है, जिसके कारण दलित-आदिवासी सामाजिक संगठन पंगु बने हुए है और कई अन्तविरोध से ग्रसित हैं।
आज देश के राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय संगठनो पर नजर डाले तो आपको बिल्कुल साफ नजर आयेगा कि इन संगठनो पर 60 की उम्र पार कर चुके दलित नौकरशाहों का कब्जा हैं। उम्र के जिस पड़ाव में जीवन तथा शरीर की ऊर्जा अपने अन्तिम चरण में होती है।
जबकि समाज को निरन्तर नित-नई समस्याओं से रूबरू होने तथा जिस समाज का 95 प्रतिशत वर्ग आज भी मजदूर तथा गरीब व शोषण का शिकार हो, जिसका राजनैतिक आधार भी 1 प्रतिशत या कही-कही तो जीरो हो। ऐसे समाज को एक क्रान्तिकारी नेतृत्व की आवश्यकता होती हैं जो युवा हो। क्योकि दुनिया के इतिहास में ऐसा कही उदाहरण नहीं मिलता है कि किसी व्यक्ति ने उम्र के अन्तिम पड़ाव में कोई नवाचार या क्रान्तिकारी परिवर्तन या ऐतिहासिक लीडरशिप समाज को दी हो।
सच कहूं तो जिसकी जिम्मेदारी, समाज के युवा और अनुभवी व्यक्तियों को आगे लाने की जिम्मेदारी होती है उन्हें आज भी यह लगता है कि उन्हें पद चाहिए जबकि पिछले 60 वर्षो से देश की शासन व्यवस्था का हिस्सा रहे। 60 वर्ष राज करने के बाद भी, इन्हें यह नही लगता है कि अब पदो का मोह त्यागना चाहिये। जबकि जीवन भर पदो पर रहे।
जिस समाज का यह लोग शासन में प्रतिनिधित्व करते थे, तब यह समाज का भला नही कर पाये तो अब यह कैसे भला कर देगें। तब यह समाज का मार्गदर्शन नही कर पाये, तो अब कैसे कर देगें तथा तब समाज में उदाहरण पेश नही कर पाये तो, अब कैसे कर देगें। तब, यह त्याग नही कर पाये तो अब कैसे, यह समाज के लिए त्याग कर पायेगें। मेरी समझ से परे है।
मुझे तो 100 प्रतिशत शक है क्योकि इन सामाजिक संगठनो में इन तथाकथित नौकरशाही का प्रथम उद्देश्य पद प्राप्त करना है, तो यह समाज का विकास कैसे करेगें, क्योकि विकास इनकी प्राथमिकता में कही नही है।
जबकि पद इनकी प्राथमिकता में है। यदि समाज का विकास इनकी प्राथमिकता में होता तो, आज यह संगठन कागजी बनकर नही रहे होते और यह लोग समाज को अपनी उम्र के अन्तिम दौर में लीडरशिप देने की बात करते हैं। आज 70 वर्ष प्लस की उम्र में भी इन्हें पद चाहिये जबकि देश में व्यक्ति की औसत आयु 70 वर्ष है। यह पदो के मोह-माया जाल में फंसे है कुछ दिखाई नही दे रहा है।
स्थिति ऐसी है की जो लोग समाज को लीडरशिप देने की बात करते है या नेतृत्व कर रहे है वो समाज के लाखो लोगो के साथ धोखा कर रहे है। आप कहेगें कैसे ?
आप देखिये जो व्यक्ति आई.ए.एस, आई.पी.एस., आर.ए.एस., आर.जे.एस. या डाक्टर, इंजिनीयर या चाटर्ड एकाउन्टेन्ट, राजपत्रित अधिकारी हो। जिसका बच्चा शहर की टाॅप पब्लिक स्कूल में पढ़ता हो, जो 10-15 लाख की गाड़ी में घूमता हो तथा बंगले में रहता हो और देश के बेहतरीन कोचिंग संस्थाओं में कोचिंग लेता हो और जब पढ़ाई के लिये आई.आई.टी. या मेडिकल कालेज में चयन की बात हो या सरकारी नौकरी लेने का प्रश्न हो तो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का प्रमाण-पत्र लगा लेता हैं और अपनी मंजिल पा भी लेता है और फिर पावर मिलने के बाद, वे अपने पिछडे भाईयो से सिधे मुह बात करने में भी शर्माते हैं।
मुझे तो यह समझ नही आता है कि जो व्यक्ति आई.ए.एस, आई.पी.एस., आर.ए.एस., आर.जे.एस. या डाक्टर, इंजिनीयर या चाटर्ड एकाउन्टेन्ट, राजपत्रित अधिकारी हो जिसका बेटा/बेटी टाॅप पब्लिक स्कूल और कोचिंग संस्थान में पढ़ता हो, फिर भी उसे आरक्षण चाहिये। जो बड़ी शर्मनाक बात है।
मुझे कोई आपत्ति नही है। लेकिन उस पिछडे गरीब मॉ-बाप के बेटा/बेटी का क्या होगा जिसके पास पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल है और कोचिंग के पैसे की तो बात ही छोडि़ये। उसका विकास कैसे होगा ? मुझे बताये, ऐसे लोग जब अपने ही पिछड़े लोगों का रास्ता रोककर बैठेंगे तो फिर समाज को नेतृत्व कैसे देगें।
क्या आपको लगता है जो व्यक्ति आई.ए.एस, आर.जे.एस. या डाक्टर, इंजिनीयर जो प्रतिमाह एक लाख से ज्यादा कमाते हो उन्हें भी आरक्षण की जरूरत है। मुझे दुःख इस बात का है कि आज क्रिम-क्रिम को खा रही है। समाज के गरीब लोगों के साथ धोखा देने वाले ही, समाज को लीडरशिप देने की बात कह रहे है। बार-बार जब आरक्षण पर हमला होता है तो यही तर्क दिया जाता है कलेक्टर के बच्चों को कहां आरक्षण चाहिये। जो सच भी है।
वैसे आरक्षण का आधार जाति है इसलिए इन्हें कोई रोक नही सकता, लेकिन इन्हें स्वयं नही लगता कि इनके पिछड़े भाई के बेटा-बेटी भी आई.ए.एस, आर.जे.एस., इंजिनीयर और डाक्टर बने। वैसे मेरा कोई विरोध नही है लेकिन उन्हें स्वयं समाज में उदाहरण पेश करने की जरूरत हैं अन्यथा इनकी वजह से आरक्षण पर हमले ऐसे ही होते रहेगें। अगर यह कोई त्याग नही कर सकते है तो समाज का विकास कैसे करेगें ? यह हमारे साथ धोखा कर रहे है। एक नया वर्ग विकसित कर रहे है। जो परम्परागत पावर फुल, पैसो वाला बन जायेगा तथा गरीब, और गरीब बन जायेगा।
लगभग पूरे देश में दलित-आदिवासी संगठनो की हालत एक जैसी है। इसलिए आज जो भी विकास हुआ है वह आरक्षण की देन और क्योकि यह सामाजिक परिवर्तन का क्रान्तिकारी हथियार है। वैसे इस बिमारी को बढावा देने में समाज के कई छोटे कर्मचारियों की भी भूमिका है, क्योकि उन्हें सरकारी तन्त्र के दबाव को ध्यान में रखते हुए इन्हें मजबूरन इनका शिकार होना पड़ता है।
नतीजा आज ऐसे हालात बन गये है कि संस्थाए रबड़ स्टाम्प बनकर रह गई है, जरूरत है इन्हें युवा, आत्मनिर्भर नेतृत्व की, ताकि इन संगठनो में नई ऊर्जा का संचार कर सके। सलाहकारो में अनुभव को प्राथमिकता दी जानी चाहिये लेकिन नेतृत्व में इनकी भूमिका नही बनती, क्योकि यह संगठन को लीड करने का समय खो चुके है।
इन संगठनो को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो समाज के निचले तबके को ऊपर उठाने में क्रान्तिकारी भूमिका निभाये जिसका आधार स्वत्याग करने से प्रारम्भ होता हैं। संगठनो को पंगु बनाने में इन लोगों ने कोई कसर नही छोड़ी है। इन संगठनो के संघ-विधान-नियमावली को भी सोसाइटी अधिनियम के परे जाकर संशोधित कर दिया है जिससे इनकी चुनाव प्रणाली भी लचर अवस्था में है इसका आधार है-संगठनो को टुकड़ो/ पदो में बांटो अर्थात् फूट डालो राज करो की नीति पर आधारित है, जिससे यह संगठन अप्रासंगिक हो गये है।
इन सबका श्रैय इन नौकरशाहो को जाता है जिन्होने अपने पद को बनाये रखने के लिये संगठनो को निम्न स्तर तक पहॅुचा दिया है। वैसे आज जो समाज पिछड़ा है उसमें ऐसे उम्रदराज बुद्धिजीवी नेतृत्व की अहम भूमिका है क्योकि वो नही चाहता की, गरीब आदमी का उत्थान हो, उसे ताकत मिले। उसे तो केवल अपने बच्चो को आई.आई.टी. इंजिनियर, डाक्टर, आई.ए.एस., आर.जे.एस. बनाने की पड़ी है कुछ भी हो मेरा बेटा/बेटी सफल होने चाहिये।
इसलिए बाबा साहेब ने कहा कि मुझे मेरे पढे-लिखे लोगों ने धोखा दिया है। वो धोखेबाज इन्ही में से थे। मैं यह नही कहता कि, सभी ऐसे ही है लेकिन अधिकतर ऐसे ही है, जो कुछ अच्छे लोग है वे नगण्य है।
इन संगठनो तथा समाज का विकास तब तक सम्भव नही है, जब तक की ऐसे पद लोलुपता वाले लोगों को बाहर का रास्ता न दिखायेगें, इनके कब्जे को समाप्त करने की जरूरत है तथा समाज में आत्मनिर्भर त्याग व समर्पित युवाओं को मौका देने की जरूरत है, क्योकि आज समाज में 65 प्रतिशत युवा वर्ग है और इनका बहुमत भी हैं, और दुनिया में आज जो परिवर्तन आ रहे है उनके पिछे कही न कही युवा जोश है जिसका उदाहरण दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र अमेरिका की ताकत उसका युवा राष्ट्रपति है, जिससे वह महाशक्ति बन बैठा है।
लेखक: कुशाल चन्द्र रैगर, एडवोकेट
M.A., M.COM., LLM.,D.C.L.L., I.D.C.A.,C.A. INTER–I,
अध्यक्ष, रैगर जटिया समाज सेवा संस्था, पाली (राज.)