साहित्य समाज का दर्पण होता है जिस समाज का साहित्य जितना विकसित होगा वह समाज उतना ही उन्नत, जाग्रत होगा। विश्र्व इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पडे है प्राचीन काल से तथा कथित उच्च वर्गों का साहित्य पर एकाधिकार होने से इर्षा वंश दलित शोषित जातियों का कोई इतिहास नहीं रचा गया। रैगर जाति भी इस विडम्बना से वंचित नहीं रही बीसवीं सदी के सामाजिक शैक्षणिक, राजनैतिक आन्दोलनों के प्रभाव से तथाकथित दलित जाति के अंग रैगर समाज में भी नवजागरण का प्रवेश हुआ। शिक्षित रैगर बंधुओं के दिल में रैगर इतिहास के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक था। समाज के प्रबुद्ध विद्वानों के क्षरा रैगर प्राचीन इतिहास की खोज का महत्वपूर्ण कार्य प्रारंभ कर दिया गया। अनेकों प्रयासों अनुसंधानों के पश्चात् भी हमारे विद्वानगण किसी प्रामाणिक इतिहास तक नहीं पहुंच पाये फिर भी हमारे समाज में प्रचलित रिति-रिवाजों, मान्यताओं, जागाओं, गंगागोरों की पोथियों, किवदतियों ने रैगर जाति का प्रथम पुरूष सूर्यवंशी महाराजा सागर का होना प्रमाणित किया, कई विद्वानों ने रैगर जाति का उभ्दव रघुवंशीयों से कुछ क्षत्रियों की शाखा रांघडा क्षत्रियों से कुछ अग्रवाल समाज से होना स्वीकार करते है। रैगर समाज का प्राचीन स्वर्णिम इतिहास कुछ भी रहा हो इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक खोज परमावश्यक है। समाज के प्रबुद्ध लेखकगण स्व. श्री पूज्य स्वामी आत्माराम लक्ष्य, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद गाडेगावलिया, श्री चिरंजीलाल बकोलिया, श्री जीवनराम गुसाईवाल, श्री चन्दनमल नवल, श्री रूपलाल जलुथंरिया आदि द्वारा रैगर समाज के शोधपूर्ण इतिहास की रचना की गई जो उच्च कोटी के रैगर इतिहास होकर अत्यंत ज्ञानवर्धक एवं समाजोंपयोगी सिद्ध हुए है। सब धन्यवाद के पात्र है। रैगर समुदाय से आग्रह करते है कि सभी संगठित हो बैरभाव त्याग कर समाज हित के कार्यों में तन-मन-धन से लगते हुए इस माज को उन्नति के शिखर पर ले जाने का प्रयास करे अपनी संतानों को सामाजिक ज्ञान से परिपूर्ण कर रूडियों, बुराईयों से बचाते हुए समाज को उन्नत करने के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन कर जाति के ऋण से उरीण होने का प्रयास करें।
लेखक : गणेशचन्द्र आर्य (मन्दसौर)