(दायित्व बोध) : (आत्म शोध)
रैगर समाज का इतिहास शताब्दियों पुराना है लेकिन इतिहास से इस बात का साक्ष्य नहीं मिलता कि पिछली शताब्दियों में समाज सुधार के प्रयास किये गये हो । किन्तु समय के बदलते परिवेश के साथ समाज में फैली कुरितियों को दूर करने के लिए पिछले कई वर्षों से समाज सुधारकों/समाज सेविकों द्वारा हर सम्भव प्रयास किये जाते रहे हैं एवं आज भी किये जा रहे हैं ।
पिछले दशकों पर दृष्टिपात करें एवं संक्षिप्त में वर्णित करना चाहे तो हम कह सकते है कि स्वामी आत्मारामजी लक्ष्य, श्रद्धेय जयजन्दजी मोहिल, श्रद्धेय नवल प्रभाकर जी, श्रद्धेय खुबराम जी जाजोरिया, श्रद्धेय कवरसेन जी मौर्य, श्रद्धेय छोगालाल जी कंवरिया, सर्वश्री धर्मदासजी शास्त्री, श्रद्धेय भोरीलाल जी शास्त्री, श्रद्धेय होशियार सिंह जी माछलपुरिया, श्रद्धेय पुरूषोत्तम जी मोहिल, श्रद्धेय कन्हैयालाल जी बालोठिया, श्रद्धेय महेश जी वर्मा (खजोतिया), एवं श्रद्धेय सूर्यमल जी मौर्य द्वारा विषम परिस्थितियों एवं समय में, समाज सुधार के भगीरथी प्रयास किये गये आज भी समाज के अनेक समाज सेवी इस परम्परा की कड़ियों से जुड़े हुये होकर सतत् प्रयासरत है ।
श्री जयचन्द जी मोहिल एवं श्री सूर्यमल मौर्य ने पेम्पलेटों एवं पत्रकारिता के माध्यम से भी समाज सुधार एवं समाज उत्थान के हर सम्भव प्रयास किये । श्री कालूरामजी आर्य ने ‘रैगर प्रगतिशील पत्रिका’ व ‘राजस्थान सम्राट’ जैसी पत्रिका का प्रकाशन कर प्रयासों को आगे बढाया और नारी होते हुए भी श्रीमती कांतादेवी वर्मा (कानखेड़िया, इन्दौर, म.प्र.) ‘रैगर उत्थान’ पत्रिका का सफल प्रकाशन किया एवं समाज सुधार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । एक महिला का समाज सूधार के प्रति यह संघर्ष रैगर समाज के लिए गर्व की बात है ।
माननीय श्री चन्दनमल जी नवल ने कठोर साधना एवं सतत् प्रयासों से ‘रैगर जाति का इतिहास’ पुस्तक की रचना कर इतिहास में रैगर जाति को बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है जौ निश्चित रूप से साधुवाद के पात्र है ।
सन् 1935 में स्व. श्री जयचन्द जी मोहिल ने तो ‘शराब के फल’ नामक पुस्तक का उस समय प्रकाशन करवाया था जब इस समाज का आम आदमी सगाई, सम्बन्ध, विवाह, मौसर आदि में बिना शराब के कोई कार्य शुरू ही नहीं करता था एवं छोटे-छोटे बच्चे, औरते एवं आदमी सामुहिक रूप से शराब का सेवनकर, शराब पीना जीवन का आवश्यक अंग समझा जाता था एवं समाज सुधार के भी उस समय कोई प्रयास नहीं हो रहे थे ।
संभाव्य भाषणों, दिखावों एवं थोथी बातों से मसाज सुधान नहीं होते, इसके लिये तन-मन-धन का उत्सर्ग करना पड़ता है । एक समय की बात है, जब प्रथम अखिल भारतीय रैगर महासम्मेलन (दौसा : राजस्थान) को सफल बनाने के लिए प्रचार प्रसार हेतु श्री जयचन्द जी मोहिल एवं श्री कवंरसेन जी मौर्य राजस्थान के विभिन्न जिलों का दौरा कर रहे थे तब एक रैगर बन्धु ने पूछा मोहिल जी अब आप कहां मिलोगे, पता क्या है, तो मोहिल जी ने हंसकर उत्तर दिया ‘पता क्या खाक बतलाऊ निशां या बेनिशां अपना जहां बिस्तर लगे, बैठे, वहीं समझो मकां अपना ।’ क्योंकि मोहिल जी ने समाज सुधार के लिए घूम जो रहे थे । बिना उत्पर्ग के कुछ नहीं मिलता । जिन लोगों ने समाज सुधार के लिये उत्सर्ग किया और कर रहे हैं हम सभी को उनके प्रति श्रद्धावत होना चाहिए, क्योंकि वे ही इसके वास्तविक अधिकारी है । जो कुरितियों अब तक दूर हुई है, वे ऐसे ही लोगों के उत्सर्ग का परिणाम है । किसी कवि ने कहा है –
‘बीज जब मिट्टी में मिल जाए, वृक्ष तब उगता है ऐ-मित्र ।’
ये समाज के ऐसे बीज हुए है, जिन्होंने समाज रूपी मिट्टी में मिलकर समाज सुधार के वृक्ष तैयार किये जिनके फलों का आस्वादन आज आप हम सभी कर रहे हैं ।
अन्य जातियों के समाज की ओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि बदलते समय के साथ-साथ अन्य समाज के लोगों ने अपनी रूढ़ियों-परम्पराओं एवं मापदण्डों में बहुत परिवर्तन कर लिये है व और समय के साथ चल रहे हैं । परिणाम स्वरूप वे हमसे काफी आग निकल चुके हैं । और यही स्थिति रही तो हम समय से काफी पीछे छूट जाएंगे और उसे पकड़ नहीं पायेंगे । अत: इस समय मूल आवश्यकता है समय को समझने की, उसके अनुरूप समाज में सुधार करते हुये आगे बढ़ने की । यह कठिन अवश्य है – असम्भव नहीं है । भागीरथी प्रयासों से क्या नहीं होता ?
आज समाज की रूढ़ियों एवं परम्पराओं पर एक दृष्टि डाले तो ज्ञाता होता है कि समाज में नारी शिक्षा का अभाव है आज भी नारी हो हेय दृष्टि से देखा जाता है या उचित सम्मान नहीं दिया जाता है । उसे शिक्षित करने के पूर्ण
प्रयास नहीं किये जाते ।
इसी प्रकार समाज में आज भी शिक्षा का अभाव है । पूर्व समाज सेवियों द्वारा किये गये प्रयासों के परिणाम स्वरूप हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में काफी बदलाव आया है किन्तु समाज आज भी पूर्ण शिक्षित नहीं हो सका ।
नशा खोरी जो समाज, परिवार एवं स्वयं के लिए अभिशाप है उससे समाज भी मुक्त नहीं हो सका है । इस अभिशाप से कई घर परिवार बर्बाद हो रहे हैं एवं कंगाली के कगार पर आ खड़े हो गए है ।
बदलते परिवेश में सीमित परिवार का होना समाज एवं परिवार दोनो के लिए आवश्यक होते हुए भी लोग समय की आवश्यकता की नहीं पाए है और बर्बादी की ओर अग्रसर है ।
मृत्यु भोज अब तक निरन्तर चल रहे है और उसका कर्ज उतारने में पीढ़ीदर खप गई है, किन्तु वह कर्ज आज भी समाप्त नहीं हुआ है ।
बचे दुए दहेज का दानव और पन रहा है जो समाज को परिवार को डुबाने के लिए मील के आखिरी पत्थर की तरह खड़ा है ।
ये कुछ मुख्य एवं मूल समस्याएं है जिनके कारण आज भी समाज उबर नहीं पा रहा है । जैसा कि उपर बताया जा चुका है कई समाज सुधारकों द्वारा हर प्रकार से सतत् प्रयास किए गए एवं किए जा रहे हैं तथापि यथेष्ठ सुधार आज भी अपेक्षित है ।
किए जा रहे प्रयासों के अतिरिक्त इन समस्याओं का निदान व्यवहारिक धरातल पर किया जाना नितान्त आवश्यक है । इनके लिए एक बेहतर तरीका एवं सुझाव यह है कि प्रत्येक गांव के स्तर पर समाज के सहनशील, सुधारवादी दृष्टिकोण वाले, सेवा एवं समर्पण की भावना रखने वाले 5-7 युवक आपस में विचार विमर्श कर संगठित हो जाए एवं यह तक कर ले कि समाज की प्रत्येक कुरीति के उन्मूलन करने का हर सम्भव प्रयास करेगें ।
उदाहरणर्थ कोई मृत्युभोज कर रहे है तो वे उस व्यक्ति के पास जाएं उसके कारणों एवं दुष परिणामों से उसे व उसके परिवार को अवगत करवाएं उसे समझाएं कि मृत्युभोज क्यों नहीं करना चाहिए । इसके साथ ही वे समाज के बड़े बुढ़ों के पास जाएं और स्थिति समझातें हुए उन्हें इस बात के लिए राजी करें कि अमृक व्यक्ति मृत्युभोज नहीं करे तो उसकी समाजिक स्तर से बुराई नहीं की जाए । इसी प्रकार जैसे कोई छात्र मेघावी है किन्तु निर्धन है । पढ़ना चाहता है किन्तु पैसा नहीं है । ये युवा सगंठन के सदस्य सम्पन्न परिवार के मुखिया से सम्पर्क करें और उन्हें निर्धन छात्र की हर सम्भव सहायता प्रदान करवा कर उसकी शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करें । कोई अपने बेटे-बेटियों को नहीं पढ़ा रहा है तो उसे शिक्षा का महत्व समझाएं उसे प्रेरित करें और नहीं माने तो समाज के प्रबुद्ध वर्ग से उस पर इस बात के लिए दबाव डलवाए कि वह अपने बेटे-बेटी को को शिक्षित करें । कोई अपनी बेटी का बेमेल विवाह कर रहा है अथवा बाल विवाह कर रहा है तो उसके विरूद्ध आवाज़ उठाए व उसे रूकवाने का प्रयास करे अगर वह नहीं मानता है तो उसे कानूनी तोर रूकवाने का प्रयास करें ।
इस प्रकार के प्रयास करने वाले युवकों को गालियां-तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा किन्तु इसके जो परिणाम समाने आएगें वे अत्यंत सार्थक होगें । इन युवकों की यह सेवा और प्रयास आगे चल कर मील का पत्थर साबित होगी और उन्हे भी आने वाली पीढ़ी इसी तरह श्रद्धावनत होकर याद करेगी जैसे आज हम समाज के पूर्व समाज सुधारकों को याद कर रहे हैं ।
ऐसे युवक अत्यंत सहनशील रहें, अपना विवेक नहीं खोएं और आत्म विश्वास बनाए रखे । अपमान अथवा तिरस्कार पर भी मुस्कराते रहे । हताश नहीं हों । जीवन संघर्ष है जिसमें वे अवश्य विजयी होगें । विपरीत परिस्थितियों एवं समय में ही संघर्ष करने का नाम ही मर्दानगी है । और प्रत्येक कुरीतियों से संघर्ष कर मर्दानगी का परिचय दें ।
मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यदि सभी गांवों में इस प्रकार युवकों के संगठन बन जाए और अपना कार्य पूर्ण र्इमानदारी से शुरू कर दें तो कुछ ही वर्षों में वह कार्य पूर्ण हो जाएगा । जो सदियों में नहीं हो सका, वह कुछ ही वर्षों में हो जाएगा । बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता और उनका समाज के प्रति किया गया यह बलिदान भी व्यर्थ नहीं जाएगा । यह हकीकत है – धुव सत्य है !
लेखक : स्व. घनश्याम मोहिल
छोटी सादड़ी, जिला : प्रतापगढ़, राजस्थान
(साभार : रैगर उत्थान : समाचार पत्र, इन्दौर)