पुरातन काल में रैगर जाति की स्थिति- रैगर जाति एक शूद्र जाति रही है अतः विभिन्न हिन्दु शास्त्रो, स्मृतियों, पुराणो तथा धार्मिक ग्रन्थो में शूद्रो की जो अमानविय स्थिति भिन्न भिन्न कहानियो, किस्सो और स्थितियों में बताई गयी है वह वास्तव में उन पर किये जाने वाले अत्याचारो का धार्मिक आधारो व अर्नगल तर्को के आधारो पर खुले अन्याय का नंगा समर्थन ही था। मनु स्मृति का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि मनु ने मनुष्यो को विभिन्न जातियों में बांट कर हिन्दु धर्म को ऐसा पारिभाषित किया जो शूद्रो, चांडालो व अस्र्पशय जातियो के लिये मनुष्य जीवन एक अभिश्राप बन गया। जाति व्यवस्था जो कई हजार पहले स्थापित की गयी वह आज भी भारत में विद्यमान है जो हिन्दु धर्म के लिये एक कलंक ही है। हजारो सालो की जातिगत दासता को तोड़ने में बहुत समय लगेगा। जंहा तक रैगर जाति का प्रशन है वंहा एक ही बात स्पष्ट है कि यह आज भी एक शूद्र जाति के रूप में हिन्दु समाज में जानी जाती है जिस के कारण आज भी इस से विभिन्न प्रकारो से मानसिक व शारिरीक भेदभाव दृश्य और अदृश्य रूप से किया जाता है।
मनु स्मृति में शुद्र- मनुस्मृति के अनुसार वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के लोगो के अधिकार एवम् दायित्व निर्धारित किये गये है जिन का उल्लंघन दण्डनीय माना गया है। वर्ण व्यवस्था असमानता पर आधिरत है। वर्ण व्यवस्था में जो कार्य ब्राह्नाण के लिये निर्धारित है उन्हे शूद्र को करने की इजाजत नही दी गयी है। ब्राह्नाण को समाज के सब से ऊंचे पायदान पर रखा गया है और सब से नीचे शूद्र है जो ईश्वर की अद्यम व हेय कृति मानी गई है। चारो वर्णो में मनुस्मृति के अनुसार सनातन हिन्दू धर्म में ब्राह्नाण सब से ऊंचे स्थान पर माने गये है। मनुस्मृति के अनुसार ब्रह्नाा ने उसे मुंह से उत्पन्न किया है। मुख शरीर का पवित्र व सब से ऊपर का हिस्सा है। इस लिये ब्राह्नाण ससार का श्रेष्ठ प्राणी है।
मनुस्मृति के अध्याय एक श्लोक 99 से 101 के जरिये कहा गया है कि -‘ ब्राह्नाणो जायमानोहि पृथिव्यायमधि जायते। ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये।। ‘ ‘सर्वस्व ब्राह्नाणस्येदं यात्किचिज्जगती गतम्। श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेंद सर्व वै ब्राह्नार्णाऽर्हति।।‘ ‘ स्वमेव ब्राह्नाणो भुंक्ते स्वं वस्तुते स्वं ददाति च। आनृशंस्याद् ब्राह्नाणस्य भुजते हीतरे जनः।। ‘ अनुवाद- ब्राह्नाण जन्म लेते ही पृथ्वी के समस्त जीवो में श्रेष्ठ होता है। वह सब प्राणियों का ईश्वर है और धर्म के खजाने का रक्षक है। इस जगत् में जो कुछ सम्पति है वह ब्राह्नाण की ही निजी सम्पति है अपने उत्तम जन्म के कारण ब्राह्नाण सकल सम्पतियों को पाने के योग्य है। ब्राह्नाण यदि पराया अन्न भोजन ग्रहण करता है, पराया वस्त्र पहनता हे और पराये धन लेकर दूसरो को देता है तो वे सब उस के ही अन्नादि है क्योंकि अन्य सब लोग ब्राह्नाण की दया से ही भोजनादि पाते है। मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्नाण को श्रेष्ठता सिद्व करने की भी आवश्यकता नही है। उस का संस्कार युक्त बुद्विमान अथवा महान होना आवश्यक नही है क्योंकि कि वह किसी अन्य के प्रति उत्तरदायी नही है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 317 के अनुसार – ‘अविद्वांश्चैव सिद्वांच ब्राह्नाणो दैवत महत्। प्रणीतश्चाप्रणीतश्च तथाग्निदैवत महत।। ‘ इस श्लोक के अनुवाद के अनुसार ‘जैसे अग्नि चाहे संस्कारयुक्त हो या संस्कारहीन, एक महान् देवता है, वैसे ही ब्राह्नाण भी चाहे विद्वान हो या मूर्ख एक महान देवता है। वर्ण व्यवस्था में शूद्र अन्तिम पायदान पर है। शूद्र के लिये केवल एक मात्र कार्य तीनो वर्णाे, विशेषकर ब्राह्नाण की ही सेवा करना है वह भी बिना पारिश्रमिक के।
मनुस्मृति के अध्याय 1, श्लोक 91 के अनुसार शूद्र को चुपचाप तीनो वर्णाे की सेवा करते रहना है। ‘एकमेव तू शूद्रस्य प्रभु कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णनां शुश्रुषमनसेूयया। ‘ इस का अनुवाद है – ब्रह्ना ने इन सभी वर्णो कर ईष्याभाव से रहित होकर सेवा करने का ही एक मुख्य कार्य शूद्रो के लिये बनाया है।
मनुस्मृति के अध्याय 8 श्लोक 270 के अनुसार – ‘एक जातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूणया क्षिपन्। जिह्नायाः प्राप्यनुयाच्छेद जघन्य प्रभवो हि सः।।‘ अनुवाद – यदि शुद्र जाति ब्राह्नाणादि तीनो वर्णाे को कठोर वचन कह कर आक्षेप करे तो उस शूद्र की जीभ काट लेनी चाहिये क्यों कि वह सब की अपेक्षा नीच वर्ण में उत्पन्न हुआ है।
मनुस्मृति के अध्याय 8 श्लोक 279 के अनुसार -‘येन केन चिद्गेन स्याच्चेच्छष्टमनत्यजः। छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनोरनुशासन्।। अनुवाद-शूद्र हाथ पैर आदि जिस अंग से श्रेष्ठ जाति के ऊपर प्रहार करे तो राजा उसी वही अंग कटवा दे, यह मनु की आज्ञा है।
मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक 99 के अनुसार ब्राह्नाण को शूद्रो की उपस्थिति में वेदो का कभी अध्ययन नही करना चाहिये।
मनुस्मृति के अध्याय 10 श्लोक 129 के अनुसार -‘शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो धनसंचयः। शूद्रो हि धनमांसाध ब्राह्नाणानेव बाधते।। अनुवाद – शू्रद्र धन संचय करने की स्थिति में हो फिर भी ऐसा न करे क्योंकि जो शूद्र धन संचय करता है वह ब्राह्नाण को दःख पंहुचाता है।
मनुस्मृति के अध्याय 5 श्लोक 140 के अनुसार -‘उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानिवसनानि च। पुलकाश्चैव धन्यानां जीणोध्शर््चैव परिच्छदः।
110-125।। अनुवाद – शूद्र को भोजन के लिये झूंठा अन्न, पहनने के लिये पुराने वस्त्र तथा बिछोने के लिये धान के पुआल एवं पुराने तोशक आदि देना चाहिये। मनु स्मृति में शुद्रो के प्रति लिखे गये कुछ अन्य विचार निम्न प्रकार से है – ‘एकजातिद्र्विजातिस्तु वाचा दारूणया क्षिपन्। जिह्नाया प्रामुयाच्छेद जघन्यप्रभवो हि सा।।
270 अध्याय 8।। भावार्थ – शुद्र यदि द्विजातीयो से कठोर वचन कहे तो उस की जिह्ना छेद कर दंड दिया जायेगा क्योकि वह अधम पैर से उत्पन्न है। मनुस्मृति में लेख है -‘नामजातिग्रहं त्वेपामभिद्रोहेण कुर्वतः। निक्षेप्योऽयोमयः शड.कज्र्वलन्नास्ये दशाड.क्लः।।
‘ 271 अध्याय 8।। भावार्थ -नाम और जाति लेकर यदि शुद्र द्रोहसे द्विजो की निन्दा करे तो जलते हुये दश अंगुल लोहे की ष्सलाखा उस के मुख में डाली जाये।
इस प्रकार मनुस्मृति के रचनाकार को सब से अधिक चिन्ता ब्राह्नाण, क्षत्रिय एवं वैश्य विशेषकर ब्राह्नाणो के भविष्य को लेकर रही है , क्योंकि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था में तीनो ही वर्ण के लोग सुविधाभोगी माने गये है। समाज की तमाम पूंजी पर इन्ही का कब्जा रहा गया है। सत्ता का सुख भी इन तीनो वर्णो के भोग के लिये रखा गया है। शूद्रो को संपत्ति व शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया है वरन शस्त्र धारण करना भी निषिद्व किया गया है। शूद्रो को पशुओं से भी बदत्तर जीवन व्यतीत करने को मजबूर किया है। यदि शूद्र सत्ता में आये तो जो अन्याय, अत्याचा, क्रूर व्यवहार उन के साथ किया गया है वैसा व्यवहार वे तीनो वर्णाे विशेषकर ब्राह्नाणो के साथ कर सकते है। शूद्रो के प्रति घृणा, प्रतिहिंसा का जन्म दे इस से पूर्व ही उसे देश से निकल जाने की हिदायत मनु ने मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक 61 में दी है जिस में यह लेख किया गया है कि वे उस देश में नही रहे जंहा शासक शूद्र हो। शूद्र को सम्मानित व्यक्ति नही समझा जाये। मनुस्मृति मे चर्मकार शब्द का वर्णन है जो चमड़े के कार्य से संबंधित थी और जिसे मनु स्मृति में एक शूद्र जाति ही माना गया है अतः रैगर जाति को मनुस्मृति में कोई विशेष जाति नही माना गया है अतः रैगर जाति भी चर्मकार की श्रेणी की ही एक जाति है जिसे शूद्र मानते हुये विभिन्न प्रकार के अत्याचार सदियों से झेलने पड़े जो आज भी विभिन्न रूपों में देखने को मिलते है।
गांव के बाहर रैगर मोहल्ला- मनु स्मृति द्वारा निर्धारित वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्रो के मोहल्ले प्रायः गांव के बाहर ही रखे गये जिस से उच्च जातियों के व्यक्ति इन से दूर रख कर छुआछूत व अत्याचार आसानी से कर सके। रैगर जाति भी एक शूद्र जाति ही रही है अतः प्रायः प्रत्येक गांव में रैगर मोहल्ला गांव के बाहर ही हुआ करता था जो आज भी कई गांवो में देखने को मिल जाता है। इस का मुख्य कारण यह भी था कि रैगर जाति चमड़े की रंगत का कार्य किया करती थी अतः वह गांव के बाहर की अपना निवास स्थान बना सकती थी। प्रायः भारत के प्रत्येक गांव में शूद्रो की बस्तियां गांव के बाहर ही होती थी। गांव के मुख्य बाजार में ब्राह्नाण और वैशय वर्ग के लोगो के ही मकान हुआ करते थे। इस के उपरान्त खाती, दर्जी, कुम्हार आदि पिछड़ी जातियों की बस्तियां हुआ करती थी। इस के उपरान्त ही शूद्रो के मोहल्ले हुआ करते थे। इस प्रकार की गांव की बसावट के कारण शूद्रो पर लगातार कई सदियों तक अमानविय शारीरिक और मानसिक अत्याचार किये जाते रहे है जो आज तक भी भारत के कई स्थानो पर छुआछूत आदि के रूप में किये जा रहे है। इतिहास की दृष्टि से मैने बचपन में देखा कि दिल्ली का करोल बाग दिल्ली शहर का आखिरी कौणा होता था जिस में रैगर और अन्य अनुसूचित जातियों के लोग रहा करते थे। उस जमाने में ‘रहगर पुरा‘ में रैगर जाति के लोगो को बसाया गया था। दिल्ली के पटेल नगर, राजेन्द्र नगर आदि स्थान पाकिस्तान से आये शरणार्थी लोगो के लिये बनाये गये थे। जयपुर में भी रैगर जाति के लोगो को तत्कालीन जयपुर महाराजा ने जयपूर नगर के आखिरी कौणे अथाते चांद पौल और घाट गेट में बसाया था। घाट गेट में तो ‘रैगरो की कोठी‘ नामक एक मौहल्ला ही बसाया गया। बाद में रैगर जाति के लोग जयपुर शहर के मुख्य बाजार जौहरी बाजार, चौड़ा रास्ता आदि की ओर आगे नही बढते हुये मुस्लिम मौहल्ले यथा बास बदनपुरा की ओर बढने लग गये। आज की जयपुर की स्थिति अलग है। इसी प्रकार अजमेर में ‘डिग्गी रैगरान‘ तत्कालीन अजमेर शहर के अन्तिम क्षोर पर ही बना कर रैगर जाति के लोगो को वंहा बसाया गया था।
‘छप्पनिया‘ का अकाल और रैगर जाति- विक्रम संवत 1856 अर्थात 1912 ईसवी में राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा था उस समय गांव गांव में भयंकर भूखमरी देखने को मिलती थी। गांव के रैगर मोहल्लो में यह स्थिति थी कि एक लाश को शमशान में जला कर आते थे तो गांव में दूसरी लाश जलाने को तैयार मिलती थी। ‘छप्पनिया‘ के अकाल के बारे में मैने मेरा पिताश्री और माताश्री से भूखमरी की कई कहानिया सूनी थी। उस जमाने में एक लोक गीत प्रायः लोग गाते थे – कैदे वापस मत आजो रे छप्पनिया आरो काळ …….‘। ‘छप्पनिया‘ के अकाल के दौर में रैगर जाति एक मांसाहारी जाति होने के कारण मरे हुये जानवरो को खाकर जीवित रही। सम्भवतः छप्पनिया के अकाल के बाद रैगर जाति के लोगो ने मरे हुये जानवर के मांस को सर्दीयो में सुखा कर ‘बड़ी‘ बना कर बुरे समय में खाने के प्रथा को जन्म दिया। जीवन यापन की स्थिति यंहा तक खराब रही कि लोगो ने पेड़ के तने की छाल, उस की जड़ को कूट कूट कर खाया था।
प्राचीन काल में रैगर जाति द्वारा चर्म रंगत कार्य व प्रभाव– भारत के इतिहास के आदि काल, मध्यकाल व वर्तमान काल का अध्ययन किया जाये तो इन कालो में रैगर जाति के पूर्वजों को काफी कष्ट झेलने पड़े थे जिन का वर्णन यंहा करना मेरे द्वारा सम्भव नही है। वास्तव में उस समय उन की दशा बड़ी ही दयनीय थी। चमड़े की रंगत के कारण उन के सारे कपड़े, हाथ-पैर और नाखुन चमड़े को रंगने के कारण बदबूदार और लाल रंग से ही रहते थे। घरों के बीच में ‘कुंडे‘ व ‘भेवणिया‘ होती थी। घरो के पास में कच्ची गीली बड़े जानवरो अर्थात गाय व भैंस की कच्ची व सूखी हुई खाले होती थी। वहां अन्य प्रकार की गन्दगी फैली रहा करती थी जिस के कारण रैगर बस्ती में काफी बदबू रहा करती थी। घरो में बड़े जानवरो के ‘सींगों‘ की खूंटियां होती थी जिन पर मर्दो और स्त्रियों के कपड़े टांगे जाते थे। स्त्रियों के पीतल के जेवर होते थे और उन के कपड़े भी गंदे होते थे। सफाई का लोग कतई भी ध्यान नही रखते थे।
प्राचीन समय में रैगर जाति के व्यवसाय की विशेषतायें- प्राचीन काल में रैगर जाति द्वारा किये जाने वाले चर्म रंगत कार्य में प्रयोग लिये जाने शब्द व प्रक्रियाये निम्न प्रकार से थीः-
(1) रंगत- पुराने समय में चमड़े को रंगने का ही मुख्य कार्य होता था। बड़े जानवार की खाल को ही ‘आढे’ में रंगा जाता था। यह ऐसी प्रक्रिया थी जिस में बड़े जानवार की कच्ची खाल को पहले तो बड़े सूये द्धारा सूत या सन्न से चारो तरफ सिल लिया जाता था। फिर उस में पानी भर कर ‘कीकर’ के पेड़ की कुछ कुटी हुई छाल चमड़े को रंगने के लिये डाल दी जाती थी। कीकर के पेड़ को ‘बोळी’ को पेड़ भी कहा जाता था। इस की छाल को पहले सुखाया जाता था, बाद में ही इसे चमड़ा रंगने के काम में लिया जाता था। कई बार खाल में बाजरे की थोड़ी सी लेई भी छाल के साथ चमड़े में डाल दी जाती थी जिस से कि छाल का रंग पक्की तरह से चमड़े पर आ जाये। इस में चूना भी इस लिये डाला जाता था कि चमड़ा जल्दी से रंग जाये। ‘आढा’ शब्द ‘आढे’ से आया है जिस का अभिप्राय है कि खड़े के बदले लटका कर टांकना। ‘आढा’ पक्की चुनाई कर करीबन बारह-पन्द्रह फीट लम्बा और आठ फीट चैड़ा छोटा सा तालाबनूमा शकल का होता था जिस के दोनो तरफ लकड़ी के ठुंठ गाढे हुये रहते थे जिस से कि इन दोनो तरफ के ठुंठो पर पानी और कीकर की कुटी हुई छाल से भरी सन्न से सिली हुई बड़े जानवार की खाल को आढी लकड़ी में फंसा कर रंगने के लिये टांक दिया जाता था। चमड़ा रंगने की प्रक्रिया में खाल से बदबूदार पानी इस ‘आढे’ में गिरता रहता था। एक जानवार की खाल को रंगने में करीबन एक महिना लग जाया करता था। चमड़ा रंगने के बाद इसे ‘आढे’ के दोनो किनारो पर लगेे ठूंठो के बीच की लकड़ी में टांकी गई खाल के पानी और छाल को निकाल कर सन्न की सिलाई को हटा कर धूप में सुखा दिया जाता था जिस से रंगे हुये चमड़े की जूतियां और चड़स बनाया जा सके। चमड़ा रंगने की प्रक्रिया बड़ी ही कठिन और असहनीय होती थी।
(2) कुण्डी- यह प्राचीन शब्द है जो दो रूप में प्रयोग मे लाया जाता था। एक तो यह उस स्थान के लिये प्रयुक्त होता था जंहा खालो के रंगने के समय जो खाल का पानी जिस गडढे में गिरता था उसे ‘कुण्डी‘ कहा जाता था। यह शब्द उस मिट्टी के बर्तन के लिये भी प्रयोग में लाया जाता था जिस में पानी होता था और जूतिया बनाते समय ‘आरी‘ द्धारा चमड़े में छेद कर रंग बिरंगे सूत द्धारा चमड़े पर कशीदाकारी की जाती थी।
(3) गांठना- आजकल की तरह अग्रजी किस्म के जूते नही हुआ करते थे। उस जमाने में जुतिया ही हुआ करती थी जो कच्चे चमड़े को रैगर जाति द्धारा रंगने के बाद बनाई जाती थी। गांवो में नई जूतियां जिन्हे ‘जोड़ी’ कहा जाता था रैगर जाति द्धारा ही बनाई जाती थी। औरतो की जूतियों पर विशेश प्रकार की कढाई रैगर महिलाओं द्धारा ही की जाती थी जिस से वे बड़ी ही आकर्शक लगा करती थी। पुरानी अर्थात पांव में पहन कर पुरानी की हुई जूतियों को सही करना ‘गांठना’ कहलाया करता था जिस काम को भी रैगर जाति के लोग ही किया करते थे।
(4) लाव-चड़स-. जब राजस्थान के गांवो में बिजली नही हुआ करती थी तो खेतो में लाव-चड़स के माध्यम से जमीदार लोग पानी दिया करते थे। इस में दो बैलो की जोड़ी हुआ करती थी। उन के कंधे अर्थात उभरी हुई थौर पर एक लकड़ी रख दी जाती थी। इस के बीच की ‘कीली’ में लाव-चर्खी फंसा दी जाती थी। यह ‘कीली’ भी लकड़ी की हुआ करती थी। लाव सन्न की हुआ करती थी जो चड़स से बंधी होती थी। चड़स से पानी निकालने के लिये एक व्यक्ति कुए की मुंडेर पर खड़ा होता था। इस जगह को ‘ढाणा’ भी कहा जाता था। दूसरा व्यक्ति कुअे के ‘ढाणे’ की सीध में जमीन पर बैलो के चलने के लिये बनाई गई गलीनूमा जगह में खड़ा रहता था। ‘चड़स’ चमड़ेे की ढोलनुमा बनी होती थी जिस में कुअे से पानी भर कर उपर आता था और लाव को खोल देने पर कुअे के पास बनाई गई पानी की नाली में चड़स को उढेल दिया जाता था जो खेतो की क्यारियों में होता हुआ सारे खेत में पहुंच जाता था। रैगर जाति के लोग ‘चड़स’ को बनाने और ‘चड़स’ की मरम्मत करने में
माहिर हुआ करते थे। इस लिये इन का विशेष सम्मान भी था।
घास-फुस और मिट्टी के घरो में आवास व्यवस्था. रैगर जाति के लोगो के मौहल्ले गांव के बाहर होने होने के साथ साथ इनके घर मिट्टी की कच्ची ईंटो अथवा गिली मिट्टी मे घास फूस आदि व गारे के बने होते थे जो घास फूस के छप्परों से ढके रहते थे। कच्चे घर का अभिप्राय है कि इन के मकान पक्की ईटों के नही हुआ करते थे। इन घरो की छत पर ‘छप्पर‘ डालने के लिये किसी पेड़ के तने को लम्बाई और अन्य लकड़ियो को उन पर चैड़ाई के रूप में डाल कर, उस पर घास फूस का छप्पर डाल कर ‘छाया‘ की जाती थी जिस से गर्मी, सर्दी और बारिश में इन का बचाव हो जाये। इन घरो की दीवारे केवल मिट्टी की ही बनी हुआ करती थी परन्तु उस में घास फूस भी मिला होता था जिस से कि ये मिट्टी की दीवार गिरे नही। मैने मेरे बचपन में देखा था कि प्रायः रैगर महिलाओ का मिट्टी के घर बनाने में बड़ा ही योगदान हुआ करता था। इस प्रकार प्रारम्भ में राजस्थान में रैगर समाज के कच्चे घर हुआ करते थे जिन पर ‘छान’ पड़ी होती थी। इन के मकान चाहूे कच्चे थे लेकिन रिश्ते सच्चे हुआ करते थे। ये लोग चारपाई या ‘मचले‘ पर बैठते थे परन्तु आपस में दिले से पास पास रहा कररते थे। दिल्ली जैसे शहर में जब ये आकर बस गये तो कई बार ये मकानो की छत पर कहानी किस्से सुनाते-सनते सो जाया करते थे। अब जमाना बदल गया है। छतो पर लोग अब नही सोते है और कहानी किस्से अब नही होते है। पहले रैगर मोहल्लों में और रैगर जाति के घरो के आंगन में वृक्ष हुआ करते थे जो इन के जीवन के सुख दुख को इन से बांटा करते थे। इन के घरो के दरवाजे आमतौर से खुले रहते थे जिन में पड़ोसी आसानी से आ जाया करते थे। गांव में जब कौवे कांव कांव करते थे तो यह माना जाता था कि कोई मेहमान आने वाला है। कई घरो में एक ही साईकिल हुआ करती थी जिसे सारा मोहल्ला जरूरत के समय दौड़ाया करता था। जब कोई रिश्तेदार रूठ जाया करता था तो सारे रिश्तेदार उसे मनाने आ जाया करते थे। चाहे इन के पास पैसे कम थे परन्तु कम होने का इन को कोई गम नही था। उन का सेवेरा हंस कर होता था जो अब उन की शाम बिना मुस्कराये ही हो जाती है।
ये लोग अपने घरो के दरवाजे छोटे इस लिये रखते थे जो झुक कर अन्दर आ जाया करता था वह ही इन का अपना हुआ करता था। सचमुच अब जमाना बहुत बदल गया है और भविष्य में और बदलेगा। इस के अलावा इन के घरो में पुरूष वर्ग के बैठने-उठने, पालतु पशुओं के बांधने और चारा लकड़ी आदि के संग्रह के लिये अन्य खुले छप्परों का प्रयोग किया जाता है। प्रायः राजस्थान में इनके कच्चे घरो की घास फूस की छतो में सांप, बिच्छू आदि घूस जाया करते थे जो सदा ही एक स्थायी डर बने रहते थे। इस के अलावा रैगर जाति के इन कच्चो घरो की जमीन अर्थात फर्श भी गोबर मिश्रित गिली मिट्टी से लीपी पोती जाती थी उस पर रैगर महिलाये सफेदी से अच्छे डिजायनदार कारीगरी किया करती थी। किसी गावं में इक्का दुक्का किसी के पक्का मकान होते भी था तो उसे बहुत धनवान माना जाता था। वह पक्का मकान बनाने के लिये गांव के ठाकुर को रूपया देकर उस की इजाजत से ही बना सकता था। ऐसा व्यक्ति प्रायः ब्याज पर रूपये दिया करता था जिसे ‘बोरगत’ कहा जाता था। प्रायः इन के घरो में कोई अलग से ड्राईगं रूम या बैठक आदि नही हुआ करते थे। उस दौर में कई पक्के घरो में ‘साल’ भी हुआ करती थी जो प्रायः छोटी ही हुआ करती थी। जब रैगर समाज के लोग राजस्थान से दिल्ली आये तो भी इन की कच्ची झोपड़िया ही थी। राजस्थान में राजपूतो के पास गढ किले और सेठो के पास हवेलिया होती थी। गांव के निर्जन स्थान को शौचालय के रूप में उपयोग में लाया जाता था जिसे ‘जंगल’ जाना भी कहा जाता था।
रैगर जाति की रसोई का छप्परा- प्रायः रैगर जाति के लोगो की रसोई कच्चे फूस के घर में अलग से घर के आंगन अर्थात दालान में बनाई जाती थी जिस में मिट्टी का चूल्हा बना होता था। चूल्हे की राख से पीतल और कांसे के बर्तन साफ किये जाते थे। इन के बर्तनो में कांसे की थाली और लोटे का बहुत महत्व व उपयोग होता था। गलास पीतल के ही होते थे। खाना कांसे के ‘कचोळे’ या ‘कचोळी’ में खाना अच्छा माना जाता था। विवाह के अवसर पर कांसी की थाली और मुरादाबादी भरत का लोटा दिया जाता था। हर घर में ‘परिन्डा’ बना होता था जिस पर पानी के घड़े और मटके रखे जाते थे। इन मटको को महिलाये ही गावं में रैगर जाति के कुअे से पानी भर कर लाती थी क्यों कि हर जाति का अपना अलग से कुआ हुआ करता था। घर के अन्दर ‘मूंज’ अर्थात ‘सन्न’ से बुनी हुअी चारपाई हुआ करता थी जिस पर ‘गूदड़ी’ बिछा कर सो जाया करते थे। घर के बाहर खाट या मचला बिछा कर आराम कर लिया जाता था। आमतौर से इस कच्चे घर के बाहर ही मिट्टी का चूल्हा बनाया जाता था जिस पर रोटी और सब्जी पकाई जाती थी। चूल्हे की ‘बेवनी‘ की राख में किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ को गर्म करने के लिये बर्तन रख दिया जाता था। उस जमाने में प्रत्येक रैगर जाति के घर में
(1) आटा पीसने के लिये एक पत्थर की दो पाट वाली चक्की जो घर की महिला सूबह उठ कर भजन गाते हुये बाजरा, जौ आदि मोटा अनाज पीसा करती थी। मैने मेरे बचपन में मेरी माता श्रीमती खेमली देवी को घर में रखी पत्थर की चक्की से पूरे परिवार के लिये सुबह-सुबह अनाज पीसते हुये देखा था।
(2) बाजरा आदि मोटे अनाज जिस में प्रायः गेहंु नही होता था को गूदने के लिये मिट्टी का कुण्डा
(3) रोटी सेकने अर्थात पकाने के लिये मिट्टी का तव्वा जिसे किसी पुरानी मटकी को दो भागो मे इस तरह तोड़ा जाता था कि मटकी का नीचे का हिस्सा रोटी पकाने के काम में आ जाये। इसे ‘कलेड़ी‘ कहा जाता था।
(4) रोटी व चूल्हे की आग को पलटने के लिये एक चिम्मटा
(5) मिर्ची आदि पीसने के लिये सिलपत्थर व लोढी
(6) सब्जी पकाने के लिये सिगड़ी
(7) घर के परिन्डे में पीने का पानी का रखा गया मिट्टी का मटका
(8) पीतल के गलास क्योंकि उस जमाने में स्टील का बिल्कुल प्रचलन नही था। अल्मूनियम के बर्तन रैगर जाति में इस लिये प्रचलित नही हो पाये कि रैगर जाति के लोग प्रायः यह मानते थे कि अल्मूनियम के बर्तनो में खाना खाने से टी.बी. जैसी भंयकर बीमारी हो जाती है।
(9) पीतल का कटोर दान
(10) कांसी की थाली और ‘कचोळा‘ आदि खाने के बर्तन
(11) शाम को बनाई गयी रोटियों को खाने के बाद बची हुई रोटियो को खुजुर के पत्तों व उस के घास फूस से बनाई गयी ‘पलड़ी‘ जो कुछ समय के लिये कागज की लुगदी से बनाये गये ‘डूमला‘ मे भी रखी जाने लगी। इस प्रकार आज के जमाने की तरह रैगर जाति के लोगो के पास रैफीरेज्रैटर, बिजली के सामान आदि नही हुआ करते थे परन्तु वे खुश रहा करते थे।
कच्चे घरो में उजाला करने का तरीका- जहां तक घरो में उजाला करने का प्रशन है, उस जमाने में मिट्टी का ‘दीया’ या चिमनी ही जलायी जाती थी जिस में तिल का तेल डला जाता था। ‘कंटीले’ के बीज को ‘तावड़ा’ अर्थात धूप में सुखा कर उसे पीसा जाता था। बाद में उसे कपड़े में रख कर निचोड़ लिया जाता था। कंटीले के बीज प्रायः जंगल में ही उगा करते थे अतः इन को लेने के लिये महिलाये बहुत दूर तक जंगल में जाया करती थी। कंटीले का तेल चमड़े को रंगने के बाद उसे चमकाने के काम में भी लिया जाता था। इस प्रकार प्रायः इन के घरो में उजाला अर्थात रौशनी विशेष प्रकार के जंगली बीज को पीसने के बाद निकले हुये तेल को चिमनी या मिट्टी के दीये में डाल कर की जाती थी। बाद में अंग्रजो के भारत में आने के कई वर्षो के बाद चिमनी में मिट्टी का तेल डालने की प्रथा का जन्म हुआ। मेरी माताश्री खेमली देवी कई बार यह गीत सुनाया करती थी – ‘डट जाये अे रेल भवानी, आया मारू जी रो देस। …..चिमनी रंग महल में जूपै छै सारी रात………।। ‘लालटेन‘ और उस से रोशनी करने का रिवाज तो अंग्रजी शासन के बहुत बाद में प्रारम्भ हुआ था। इस के अलावा घर के बाहर की दीवार में रौशनी करने के लिये एक दीपक या चिमनी रखने का स्थान बनाया जाता था। यह स्थान बाहर की दीवार में एक गहरायी देकर बनाया जाता था जिस से हवा में
यह दीपक या चिमनी नही बुझा करती थी।
रैगर जाति द्वारा उपयोग में आने वाली वस्तुयें- रैगर जाति के लोगो द्वारा बहुत सी वस्तुये अब प्रयोग में नही ली जाती है और इन वस्तुओं के बारे में जानकारी भी धीरे धीरे समाप्त हो रही है जिन में कुछ निम्न प्रकार से थीः-
(1) कोठयार या ओबरी- यह मुख्यतः अनाज रखने के लिये के लिये मिट्टी में गोबर मिला कर चैकोरनुमा बनाया जाता था। इस की लम्बाई चैड़ाई घर के जिस कमरे में इसे रखा जाना होता था या बनाया जाना होता था उस कमरे की लम्बाई चौड़ाई पर ही इस का निर्माण निर्भर होता था। इस में मजबूती आ जाये इस लिये कई बार भूसा भी मिट्टी और गोबर में मिला लिया जाता था। बड़े साइज के बने हुये को जिस में ज्यादा सामान आ जाये उसे ‘कोठयार’ कहा जाता था। छोटे साइज वाले को ‘ओबरी’ कहा जाता था। इन मे अनाज के अलावा कीमती सामान और गहने आदि भी अनाज में छुपा कर रखे जाते थे। ‘कोठयार’ और ‘ओबरी’ बनाने का मुख्य कारण यह था कि उस दौर में आसानी से अनाज नही मिला करता था तथा कई बार बारिश के नही होने के कारण अकाल का सामना भी करना पड़ता था इस लिये यह आवश्यक था कि अनाज को बचा कर रखा जाये। इस के अलावा रैगर समाज के पास खेती की जमीन भी नही हुआ करती थी क्यों कि मूलतः यह कौम खेतीहर कौम भी नही थी। अपने खाने के अनाज प्राप्त करने के लिये महिलायें प्रायः जमीदारों के यहां ‘लावणी’ करने जाया करती थी जिस के एवज में जमीदार उन्हे कुछ अनाज दे दिया करता था जिस से उन का गुजर बसर हो जाये। इस के अलावा गांव के ठाकुरो और जमीदारों द्धारा बलपूर्वक ‘बेगार’ भी करवाई जाती थी। इस ‘बेगार’ के एवज में इन्हे ज्वार या बाजरा पेट भरने को मिल जाया करता था। इस मौटे अनाज में जो कुछ भी बच जाता उसे ‘कोठयार’ अर्थात ‘ओबरी’ में बुरे समय मे बच्चो का पेट पालने के लिये रख लिया जाता था। उस समय में गरीबी बहुत अधिक थी इस लिये इनके पास सन्दूक अथवा अलमारी होने का प्रशन ही नही उठता। मैने रैगर समाज के कई पुराने घरो में ‘कोठयार’ और ‘ओबरी’ बनी हुई देखी है। आजकल के जमाने में न तो कोई इन्हे बनाता क्यों कि इनके बनाने में काफी मेहनत लगती है। इस के अलावा आसानी हर जगह पर लौहे की सन्दूक या अलमारी मिल जाती है। अनाज का मिलना भी आसान हो गया है।
(2) डूमला- ‘ डूमला‘ कागज की लुबदी का रोटी रखने के लिये एक बर्तन होता था जो रोटी को गर्म रखता था।
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