श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः ।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत् । ।
‘श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है’ ।
जब हम इस इतिहास के माध्यम से हमारे बुजुर्गों को याद कर रहे हैं, और उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं तो इस सम्बन्ध में हमारे लिये यह जानना एक तरह से जरूरी हो जाता है कि हमारा उनके प्रति क्या फर्ज है ? उनकी शांति के लिए हम क्या कर सकते हैं ? वे हमारे से क्या उम्मीद रखते हैं ? इस सम्बन्ध में हमारे शास्त्र हमें क्या दिशा-निर्देश देते हैं ? क्योंकि हममें से अधिकतर लोगों को इस सम्बन्ध में ज्यादा जानकारी नहीं होतीं है सिर्फ कुछ बुजुर्ग (वृद्ध) लोगों की जानकारी पर ही हमें निर्भर रहना पड़ता है । पितृ या पितर का क्या अर्थ है ? प्रेत किसको कहते है ? प्रेत-पीड़ा क्या है ? प्रेत योनि से उनको छुटकारा दिलाने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं ? किसी कुल में कोई प्रेत हुआ है इसका अनुमान कैसे हो ? श्राद्धान्न पितरों के पास कैसे पहुँचता है ? एवं श्राद्ध के करने का क्या महत्त्व है ? इन सबके बारे में थोड़ी जानकारी यदि हम इस बहाने प्राप्त करते हैं तो मैं समझता हूँ कि इसमें कोई बुराई नहीं हैं । मानना न मानना अपने-अपने विश्वास पर निर्भर करता है ।
पितर – पितर या पितृ शब्द का अर्थ ‘नालन्दा विशाल शब्द सागर’ में मृत पूर्वज या पूर्व पुरूष किसी व्यक्ति के मृत पिता, दादा, परदादा आदि पूर्व पुरूष बताया गया है ।
प्रेत – शब्द का मतलब इसी शब्द कोश सागर में – मृतक प्राणी या मरा हुआ मनुष्य, और वह मृत आत्मा की अवस्था जो और्ध्व दैहिक कृत्य किये जाने के पूर्व रह जाती है, बताया गया है ।
प्रेत-पीड़ा – गरूड़ पुराण के अध्याय 9 में यह स्पष्ट किया गया है कि प्रेत-पीड़ा क्या है ? तथा किसी के कुल में कोई प्रेत हुआ है यह कैसे जाना जा सकता है ? इस अध्याय में राजा बभ्रुवाहन की कथा का वर्णन है जिसमें राजा और प्रेत के बीच जो सम्वाद हुआ है उसमें प्रेत के द्वारा इस प्रश्न का जवाब दिया गया है । प्रेत कहता है – ”हे राजन ! लिग्ड (चिन्ह् विशेष) और पीड़ा के कारण प्रेत योनि का अनुामन लगाना चाहिए । इस पृथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न की गयी जो पीड़ाएँ हैं उनका मैं वर्णन कर रहा हूँ । जब स्त्रियों का ऋतु काल निष्फल हो जाता है, वंश वृद्धि नहीं होती । अल्पायु में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो उसे प्रेत पीड़ा माननी चाहिए । अक्समात जब जीतिका छिन जाती है, लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा विनिष्ट हो जाती है, एकाएक घर जलकर नष्ट हो जाता है तो उसे प्रेत जन्य पीड़ा समझे । जब अपने घर में नित्य कलह हो, मिथ्यापवाद हो, राजयक्ष्मा आदि रोग उत्पन्न हो जायें तो उसे प्रेतोद्भूत-पीड़ा समझे । जब अपने प्राचीन अनिन्दित व्यापार मार्ग में प्रयत्न करने पर भी मनुष्य को सफलता नहीं मिलती है, उसमें लाभ नहीं होता है, अपितु हानि ही उठानी पड़ती है तो उस पीड़ा को भी प्रेतजन्य ही माने । जब अच्छी वर्षा हो जाने पर भी कृषि विनष्ट हो जाती है, अपनी स्त्री अनुकूल नहीं रह जाती तो उस पीड़ा को प्रेत समुद्भूत माननी चाहिए ।” इसी पुराण के अध्याय 20 में प्रेत बाधा के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । गरु के यह पूछने पर कि है प्रभु ! वे प्रेत किस रूप में किसका क्या करते हैं ? किस विधि से उनकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है ? क्योंकि वे न कुछ कहते हैं, न बालते हैं ? इस पर भगवान विष्णु उत्तर देते हुए कहते हैं – है गरुड़ ! प्रेत होकर प्राणी अपने ही कुल को पीड़ित करता है, वह दूसरे कुल के व्यक्ति को तो कोई अपराधिक छिद्र प्राप्त होने पर ही पीड़ा देता है । जीते हुए तो वह प्रेमी की तरह दिखायी देता हैं, किन्तु मृत्यु होने पर वही दुष्ट बन जाता है । जो ईश्वर का जप करता है, धर्म में अनुरक्त रहता है देवता और अतिथि की पूजा करता है, सत्य तथा प्रिय बोलने वाला है उसको प्रेत पीड़ा नहीं दे पाते । जो व्यक्ति सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं से परिभ्रष्ट हो गया है, नास्तिक है, धर्म की निन्दा करने वाला है और सदैव असत्य बोलता है उसी को प्रेत कष्ट पहुँचाते हैं । इस संसार में उत्पन्न एक ही माता-पिता से पैदा हुए बहुत-सी सन्तानों में एक सुख का उपभोग करता है, एक पाप कर्म में अनुरक्त रहता है, एक सन्तानवान होता है, एक प्रेत से पीड़ित रहता है और एक पुत्र धनधान्य से सम्पन्न रहता है, एक पुत्र मर जाता है, एक के मात्र पुत्रियाँ ही होती है । प्रेत दोष के कारण बन्धु-बान्धवों के साथ विरोध होता है । प्रेतयोनि के प्रभाव से मनुष्य को संतान नहीं होती, यदि सन्तान उत्पन्न होती भी है तो वह मर जाती है । …… अचानक प्राणी को जो दुख होता है वह प्रेत-बाधा के कारण होता है । नास्तिकता, अत्यन्त लोभ तथा प्रतिदिन होने वाला कलय यह प्रेत से होने वाली पीड़ा है । नित्य कर्म से दूर, जप-होम से रहित और पराये धन का अपहरण करने वाला मनुष्य दु:खी रहता है, इन दु:खों का कारण भी प्रेत बाधा ही है । प्राणी जो हीन कर्म करता है, अधर्म में नित्य अनुरक्त रहता है वह प्रेत से उत्पन्न पीड़ा है । व्यसनों से द्रव्य का नाश हो जाता है, चोर, अग्नि और राजा से जो हानि होती है, व प्रेत सम्भूत पीड़ा है । शरीर में महाभयंकर रोग की उत्पत्ति, तथा पन्नी का पीड़ित होना- ये सब प्रेत बाधा जनित है । धार्मिक संस्कारों वाले परिवार में जन्म होने पर भी धर्म के प्रति प्राणी के अन्त: करण में प्रेम का न होना प्रेत जनित बाधा ही है । देवताओं, तीर्थों एवं ब्राह्मणों की निन्दा करना भी प्रेतोत्पन पीड़ा है । स्त्रियों का गर्भ विनष्ट हो जाना, जिनमें रजोदर्शन नहीं होता और बालकों की मृत्यु हो जाती है । वहाँ प्रेतजन्य बाधा ही समझनी चाहिये । जो मनुष्य शद्ध भाव से सांवत्सरादिक (जा प्रत्येक वर्ष आता है) श्राद्ध नहीं करता है, व प्रेत बाधा ही है । तीर्थ में जाकर दूसरे में आसक्त हुआ प्राणी जब अपने सत्कर्म का परित्याग करके तथा धर्म कार्य में स्वर्जित धन का उपयोग न करें तो उसको भी प्रेतजन्य पीड़ा ही समझना चाहिए । भोजन करने के समय कापयुक्त पति-पत्नी के बीच कलह, दूसरों से शत्रुता रखने वाली बुद्धि- यह सब प्रेत सम्भूत पीड़ा है । जहाँ पुष्प और फल नहीं दिखायी देते तथा पत्नी का विरह होता है वहाँ भी प्रेतोत्पन्न पीड़ा है । जो व्यक्ति सगोत्री का विनाशक है, जो अपने ही पुत्र को शत्रु के समान मार डालता है, जिसके अन्त: में प्रेम और सुख की अनुभूतियों का अभाव रहता है, वह दोष उस प्राणी में प्रेत बाधा के कारण होता है । पिता के आदेश की अवहेलना, अपनी पत्नी के साथ रहकर भी सुखोपभोग न कर पाना, व्यग्रता और क्रूर बुद्धि भी प्रेतजन्य बाधा के कारण होती है ।’ ऐसा जानकर मनुष्य प्रेत-मुक्ति का सम्यक् आचरण करें । जो व्यक्ति प्रेत योनि को नहीं मानता है, वह स्वयं प्रेतयोनि को प्राप्त हाता है । जिसके वंश में प्रेत दोष रहता है, उसके लिये इस संसार में सुख नहीं है । प्रेत बाधा होने पर मनुष्य की मति, प्रीति, रति, लक्ष्मी और बुद्धि- इन पाँचों का निर्धन, और पाप कर्म में अनुरक्त रहता है । विकृत मुख तथा नेत्र वाले, क्रुद्ध-स्वभाव वाले, अपने गोत्र, पुत्र, पुत्री, पिता, भाई, भौजाई, अथवा बहु को नहीं मानने वाले लोग भी विधि वश प्रेत शरीर धारण कर सद्गति से रहित हो ‘बड़ा कष्ट है’ यह चिल्लाते हुए अपने पाप को स्मरण करते हैं ।
प्रेत के उद्धार के लिए क्या करना चाहिए ?
जिन प्राणियों का अग्नि-संस्कार, श्राद्ध, तर्णण, षट् पिण्ड, दशगात्र, सपिण्डीकरण नहीं हुआ है, जो विश्वासघाती, मद्यपी, और स्वर्णचोर रहे हैं, जो लोग अपमृत्यु से मरे हैं, जो ईर्ष्या करने वाले हैं, जो अपने पापों का प्रायश्चित नहीं करते, जो गुरु आदि की पत्नी के साथ गमन करते हैं, वे सभी प्राणी अपने कर्मों के कारण भटकते हुए प्रेत रूप में निवास करते हैं । इनकी मुक्ति के लिये उनका और्ध्वदैहिक संस्कार अविलम्ब करना चाहिए । इनके लिए उसकी सन्तान, सगे-सम्बंधी, बन्धु-बान्धव, मित्र इत्यादि उपयुक्त पात्र है । जिनके माता-पिता, पुत्र और भाई-बंधु नहीं है, उनका और्ध्वदैहिक संस्कार राजा को स्वयं करना चाहिए । राजा इससे अपने पारलौकिक शुभ कर्मों को भी सम्पन्न कर सकता है और वह सभी दु:खों से विमुक्त हो जाता है ।
इस संसार में कौन किसका भाई है, कौन किसका पुत्र है और कौन किसकी स्त्री है, सभी स्वार्थ के वशीभूत है । उनमें मनुष्य को विश्वास नहीं करना चाहिये ; क्योंकि वह अपने कर्मों का स्वयं ही भोग करता है । धन घर में छूट जाता है, भाई बंधु श्मशान में छूट जाते हैं, शरीर काष्ठ को सौंप दिया जाता है । जीव के साथ पाप-पुण्य ही जाता है-
गृहेष्वर्था निवर्तन्ते श्मशाने चैव बान्धव: ।
शरीरं काष्ठमादत्ते पापं पुण्यं सहव्रजेत् । ।
प्रेत योनि में जीवन को बहुत कष्ट भोगना पड़ता है । उसका शरीर विकृत हो जाता है, उसको शान्ति नहीं मिलती, उसका धैर्य समाप्त हो जाता है उसके शरीर में मात्र अस्थि, चर्म और शिराएं ही शेष रह जाती है । वह परेशान होकर कहता है ‘मेरे निष्ठुर सपिण्डों और सगौत्रियों ने मेरे लिये वृषोत्सर्ग नहीं किया है, उसी से में इस प्रेत योनि को प्राप्त हुआ हूँ । भूख-प्यास से आक्रान्त मैं खाने-पीने के लिये कुछ नहीं पा रहा हूँ । उसी से मेरे शरीर में यह विकृति आ गई है । भूख-प्यास से उत्पन्न इस महान दु:ख को मैं बार-बार भोग रहा हूँ । वृषोत्सर्ग न करने के कारण यह कष्टकारी प्रेतत्व मुझे प्राप्त हुआ है । मुझे इस प्रेत-योनि से कौन दयावान मुक्ति दिलायेगा ?’ जब मनुष्य वृषोत्सर्ग करता है, तब जाकर वह प्रेतत्व से मुक्त होता है । यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा अथवा द्वारा यथाविधान होम करवाया जावे एवं ब्राह्मणों को भोजन करवाया जावे तो प्रेत-मुक्ति होती है ।
पितरों के नीमित किये गये श्राद्ध का महात्म्य –
पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं । जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक वे वहीं भूख-प्यास से व्याकुल होकर खड़े रहते हैं । सूर्यास्त हो जाने के पश्चात् वे निराश होकर दु:खित मन से अपने वंशजों की निंदा करते हैं और लम्बी-लम्बी सासं खीचते हुए अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं । अत: प्रयत्नपूर्वक अमावस्या के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिये । समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दु:खी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, स्वर्ग, पुष्टी, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है । देव कार्य से भी पितृ कार्य का विशेष महत्त्व है । देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है ।
भगवान ने कहा भी है जो लोग अपने पितृगण, देवगण, ब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करते हैं, वे सभी प्राणियों की अन्तरात्मा में समाविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं । शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य ब्रह्मपर्यन्त समस्त चराचर जगत को प्रसन्न कर लेता है ।
मनुष्यों के द्वारा श्राद्ध में पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरा जाता है, उससे जो पितर पिशाच योनि में उत्पन्न हुए हैं वे संतृप्त होते हैं । श्राद्ध मे स्नान करने से भीगे हुए वस्त्रों द्वारा जो जल पृथ्वी पर गिरता है, उससे वृक्ष-योनि को प्राप्त हुए पितरों की सन्तुष्टी होती है । उस समय जो गन्ध तथा जल भूमि पर गिरता है, उससे देवत्व-योनि को प्राप्त पितरों को सुख प्राप्त होता है । जो पितर अपने कुल से बहिष्कृत हैं, क्रिया के योग्य नहीं हैं, संस्कारहीन और विपन्न हैं, वे सभी श्राद्ध में विकिरान्न और मार्जन के जल का भक्षण करते हैं ।
इस संसार में श्राद्ध के नीमित जो कुछ भी अन्न, धन आदि का दान अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा दिया जाता है वह सब पितरों को प्राप्त होता है । अन्न, जल और शाक-पात आदि के द्वारा यथा सामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता है वह सब पितरों की तृप्ति के हेतु है ।
श्राद्धान्न पितरों के पास कैसे पहुँचता है ? अर्थात प्रेत योनि में स्थित वह प्रणी अपने सम्बन्धियों से प्राप्त उस भोज्य पदार्थ का उपयोग कैसे करता है ?
इस प्रश्न का उत्तर भगवान कृष्ण ने गरुड़जी को उक्त पुराण के अध्याय 10 में बताया है । भगवान कहते हैं- ‘इसे समझाने के लिये मैं तुम्हें दूसरा प्रापक बता रहा हूँ । समय आने पर विधिवत प्रतिपादित अन्नत अभिष्ट पितृ-पात्र में पहुँच जाता है । जहाँ वह जीव रहता है, वहाँ अग्निष्वात आदि पितृदेव ही अन्न लेकर जाते हैं । नाम-गोत्र और मन्त्र ही उस दान दिये गये अन्न को ले जाते हैं । शतश: योनियों में जीव जिस योनि में स्थित रहता है उस योनि में उसे नाम-गोत्र के उच्चारण से तृप्ति प्राप्त होती है । ‘पितर जिस योनि में जिस आहार वाले होते हैं उन्हें श्राद्ध के द्वारा वहाँ उसी प्रकार का आहार प्राप्त होता है । गयों का झुण्ड तीतर-बीतर हो जाते पर भी बछड़ा अपनी माता को जैसे पहचान लेता है वैसे ही यह जीव जहाँ जिस योनि में रहता है, वहाँ पितरों के नीमित ब्राह्मण को कराया गया श्राद्धान्न स्वयं उसके पास पहुँच जाता है ।’
‘यदा हारा भग्वत्येते पितरो यत योनिषु ।
तासु तासु तदाहार: श्राद्धान्नेनो पतिष्ठति । ।
यथा गोषु पुनष्ठासु वत्सो विदन्ति मातरम् ।
तथान्नं नयेत विप्रो जन्तुर्यत्रा वतिष्ठते । ।
पितृगण सदैव विश्वेदेवो के साथ श्राद्धन्न ग्रहण करते हैं । ये ही विश्वेदेव श्राद्ध का अन्न ग्रहणकर पितरों को संतृप्त करते हैं । वसु, रुद्र, देवता, पितर तथा श्राद्ध देवता श्राद्धों में संतृप्त होकर श्राद्ध करने वालों के पितरों को प्रसन्न करते हैं । जैसे ग्रर्भिणी स्त्री दोहद (गर्भावस्था में विशेष भोजन की अभिलाषा) के द्वारा स्वयं को और अपने गर्भस्थ जीव को भी आहार पहुँचाकर प्रसन्न करती हैं, वैसे ही देवता श्राद्ध के द्वारा स्वयं सन्तुष्ट होते हैं । और पितरों को भी सन्तुष्ट करते हैं ।
‘आत्मानं गर्विणी गर्भमपि प्रीगति वै यथा ।
दोहदेन तथा देवा: श्राद्धै: स्वांश्र्च पितृन्नृणाम ।।
‘श्राद्ध का समय आ गया है’ ऐसा जानकर पितरों को प्रसन्नता होती है । वे परस्पर ऐसा विचार करके उस श्राद्ध में मन के समान तीव्रगति से आ पहुँचते हैं । अन्तरिक्षगामी वे पितृगण उस श्राद्ध में ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं । वे वायु रूप में वहाँ आते हैं और भोजन करके परम गति को प्राप्त होते हैं । श्राद्ध के पूर्व जिन ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया जाता है, पितृगण उन्हीं के शरीर में प्रविष्ठ होकर वहाँ भोजन करते हैं । और उसके बाद वे पुन: वहीं से अपने लोक को चले जाते हैं ।
‘निमन्त्रितास्तु ये विप्रा: श्राद्ध पूर्व दिने खग ।
प्रविश्य पितरस्तेषु भुक्त्वा यान्ति स्वमालयम् । ।
श्राद्ध काल में यमराज प्रेत तथा पितरों को यमलोक से मृत्युलोक के लिये मुक्त कर देते हैं । नरक भोगने वाले भूख-प्यास से पीड़ित पितृजन अपने पूर्वजन्म के किये गये पाप का पश्चात्ताप करते हुए अपने पुत्र-पोत्रों से मधुमिश्रित पायस की अभिलाषा करते हैं । अत: विधि-पूर्वक पायस के द्वारा उन पितृगणों को संतृप्त करना चाहिये ।
गया तीर्थ का महात्म्य-
‘जिनकी संस्कार रहित दशा में मृत्यु हो जाती है अथवा जो मनुष्य पशु, सर्प या चोर द्वारा मारे जाते हैं वे सभी गया श्राद्ध-कर्म के पुण्य से बन्धनमुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं ।’ गया तीर्थ में पितरों के लिये पिण्डदान करने से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, सौ करोड़ों वर्षों में भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । गया क्षेत्र का परिमाण पाँच कोश और गया शिर का परिमाण एक कोश है । वहाँ पर पिण्डदान करने से पितरों को शाश्वत तृप्ति हो जाती है ।
‘पञ्च कोशं गया क्षेत्रं क्रोशमेकं गया शिर : ।
तत्र पिण्ड प्रदानेन तृप्तिर्भवति शाश्वती । ।
विष्णु पर्वत से लेकर उतर मानस का भाग गया का शिर माना गया है । उसी को फाल्गुन तीर्थ भी कहा जाता है । यहाँ पर पिण्ड दान करने से पितरों को परमगति प्राप्त होती है । गया गमन मात्र से ही व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है ।
‘गयागमनमात्रेण पितृणामनृणो भवेत् ।।
गया क्षेत्र में भगवान विष्णु पितृ-देवता के रूप में विराजमान रहते हैं । पुण्डरीकाक्ष उन भगवान जनार्दन का दर्शन करने पर मनुष्य अपने तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है । गया तीर्थ में रथ मार्ग तथा रुद्रपद आदि में कालेश्वर भगवान केदारनाथ का दर्शन करने से मनुष्य पितृऋण से विमुक्त हो जाता है । भगवान जनार्दन के हाथ में अपने लिये पिण्डदान समर्पित करके यह मन्त्र पढ़ना चाहिए ।
‘एष पिण्डोमया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन ।
परलोकं गते मोक्ष मक्षय्यमुपतिष्ठताम् । ।
‘हे जनार्दन ! मैंने आपके हाथ में यह पिण्ड प्रदान किया है । अत : परलोक में पहुँचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो । ऐसा करने से मनुष्य पितृगणों के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोग प्राप्त करता है ।’ हे व्यासजी जाति के जितने भी पितृ-बन्धु-बान्धव एवं सुहृदजन हो, उन सभी के लिये गया भूमि में विधिपूर्वक पिण्डदान किया जा सकता है । पिण्डदान करने वाले को चाहिये कि वह प्रेतशिलादि तीर्थों में स्नान करके ‘अस्मतकुले मृतायेच’ आदि मन्त्रों से अपने श्रेष्ठ पितरों का आह्वान कर वरुणा नदी के अमृतमय जल में पिण्डदान करें ।
~~~~ भगवान गदाधर विष्णु से प्रार्थना ~~~~
हे भगवान ! हमारे कुल में जो मरे हैं, जिनकी सद्गति नहीं हुई है, पितृ वंश एवं मातृ वंश में जिन लोगों की मृत्यु हुई है, माता यह कुल में जो लोग मर गये हैं, जिनको कोई सद्गति प्राप्त नहीं हुई है, आप उनका उद्धार करें । हमारे कुल में जो दाँत निकलने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं और जो कोई गर्भकाल में विनिष्ट हो गये हैं, युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, बन्धु कुल में उत्पन्न जो कोई नाम गोत्र से रहित हैं, स्वगोत्र और परगोत्र में जिनकी गति नहीं हुई है, आप उनको सद्गति प्रदान करें ।
जिनकी विष से या शास्त्राघात से मृत्यु हुई है, निकी किसी दुर्घटना में मृत्यु हुई है या जिन्होंने आत्महत्या की है, जो लोग अग्नि में या बिजली गिरने से मृत्यु को प्राप्त हुए है, जो पूर्वज हिंसक पशुओं द्वारा मारे गये अथवा जहरीले जानवारों के काटने से देहावसान को प्राप्त हुए हैं, हमारे उन सभी पूर्वजों का आप कल्याण करें । जो पूर्वज किन्ही कारणों से विभिन्न नरकों में यातना भोग रहे हैं, जो पशु योनि में, पक्षी योनि में, किट, पतंग, सर्प और वृक्ष योनि में चले गये हैं आप उन सभी को सदगति प्रदान करें । जो पूर्वज प्रेत योनि में पीड़ा भोग रहे हैं , जो अपने कर्मानुसार अन्य हजारों यानियों में कष्ट भोग रहे हैं, जिनको मनुष्य योनि दुर्लभ है उन सभी पूर्वजों या पितृगणों को आप कल्याण करें, उनको सद्गति प्रदान करें ।
जो हमारे बान्धव थे, या नहीं थे, अथवा जो अन्य जन्मों में हमारे बन्धु-बान्धव रहे हैं, उनकी सद्गति के लिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं । जो हमारे पितृ कुल, मातृ कुल, गुरू, श्वसुर, बान्धव अथवा अन्य सम्बन्धियों के कुल में उत्पन्न होकर मृत्यु को प्राप्त हुए और जो पुत्र, पत्नि से रहित होने के कारण लुप्त पिण्ड हैं, क्रिया लोप से जिनकी दुर्गति हुई है, जो जन्मान्ध अथवा पंगु हैं, जो विरूप हैं अथवा अल्पगर्भ में ही मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, जो ज्ञात अथवा अज्ञात हैं उन सभी को आप कृपा करके सद्गति प्रदान करें । ब्रह्मा और ईशान देव ! आप हमारी इस प्रार्थना में साक्षी बनें ।
हे देव ! भगवान गदाधर विष्णु ! हम पितृ कार्य के लिए आपका आह्वान कर रहे हैं । हमारे द्वारा की गई इस प्रार्थना में आप साक्षी हो । आप हम देवऋण, गुरूऋण एवं पितृऋण- इन तीनों ऋणों से मुक्त हो गये हैं ।
लेखक – सुरजाराम कानखेड़िया ‘जिज्ञासु’
33 चाणक्य नगर, बीकानेर, राजस्थान
मोबाईल नम्बर : 9413372471
{साभार : पुस्तक सरदार शहर का रैगर समाज (विक्रम की 21 वीं सदी में)}