प्रिय बंधुओं !
पुराणों शास्त्रों तथा उपनिषदों में और भी हजारों सूक्तियाँ मनुष्य के लिए व लोक कल्याण के लिए बनाई गई है । अगर मनुष्य इन सूक्तियों का अनुसर करे तो लाभ मोह मद काम क्रोध मत्सर से छुटकारा मिल जाता है । आत्मा स्वच्छ निर्मल गंगाजल सी निर्लेप पवित्र बनकर भगवान की प्राप्ति का मार्ग पा सकती है । आत्मज्ञान की राह से मनुष्य मोक्ष की मंजिल पा सकता हैं । इन सूक्तियों में ज्ञान विवेक विश्वास श्रद्धा प्रेरणा की रोशनी है, दिव्य दृष्टि है जो अंधकार में भटकते हुए प्राणियों को सतमार्ग की ओर ले जाती है । शुभकर्मों में भलाई में परमार्थ में महात्माओं के सत्संग में आदमी को लगाती है जिससे मन कमल सा प्रफुल्लित रहता है शहर सी मिठास प्राप्त हो जाती है वह स्वावलम्बी हो जाता है । प्रभु पर ही भरोसा रख अपनी कठिनाईयों को दूर करने में समर्थ हो जाता है । देखिये स्वावलम्बी अपनी कठिनाईयां स्वयं दूर करते हैं ।
” महात्मा परेण साहसं न कर्तव्यंम् ” : आत्मवान तेजस्वी पुरूष दूसरों के साहस पर निर्भर रहकर कार्य नहीं करते हैं । स्नेहिल व्यक्ति के शत्रु भी उनके वश में हो जाते हैं सभी उनके वश में हो जाते हैं ।
” उत्साहवतां शत्रवो अपिवशी भवंति ” : उत्साही व्यक्ति के शत्रु भी उसके वश में हो जाते हैं निटठ्ले व्यक्ति का जीवन किसी भी लोक में उपयोगी नहीं होता है ।
”नास्त्यस्यैहिका मुष्किम” : आलसी व्यक्ति का न यह लोक होता है न परलोक क्योंकि……………
”आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्यो महिरिपु” : मनुष्य के शरीर में आलस्य ही सबसे बड़ा शत्रु होता है ढ़ीला व आलसी व्यक्ति हमेशा अच्छे भाग्य की राह में पछताता हैं ।
”निरूत्साहो देवं परिश्यति” : निरूत्साही व्यक्ति अपने भाग्य को कोसता है ।
कई सूक्तियाँ प्रेरक उपदेशात्मक ज्ञानमय है जो मनुष्य को हर पल नेक राह पर चलने का आग्रह करती है । उसे गलत राह पर जाने से रोकती है । बुरे व्यक्तियों के संग से रोकती है जैसे-
”तेषु विश्वासों न कर्तव्य” : नीच मनुष्य का विश्वास मत करो ।
”क्षंतव्यमिति पुरूषं न बाधेत” : क्षमा करने योग्य मनुष्य को मत सताओ ।
”क्षमा वीरस्य भूषणम्” : क्षमा वीरों का भूषण हैं ।
धर्म की व्याख्या देखिये :-
”धर्मेण धार्येते लोक” : धर्म से संसार टिका हुआ है ।
”दया धर्मस्य जन्म भूमि” : दया धर्म की जन्म भूमि है ।
”धर्मेण जयति लोकान” : धर्म से संसार को जीता जा सकता है ।
”लोके प्रशस्त: समतिमान” : जो मनुष्य लोक में प्रशंसा के योग्य होता है वह बुद्धिमान होता है परन्तु जब मनुष्य के बुरे दिन आते है तब वह किसी की नहीं सुनता पर गलती करता जाता है
”विनाश काले विपरीत बुद्धि” : विनाश का समय आता है तब मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है । अन्य गुणों से भरी सूक्तियों में कितनी ज्ञानमयी विचारणीय एवं क्रियान्वित करने योग्य बूढ़ उपदेश हैं ।
”नास्ति पिशुन वादिनो रहसयम्” : चुगलखोर के लिए कोई रहस्य नहीं होता है ।
”पर रहस्यम नैव श्रोतव्यम्” : दूसरों की गुप्त बातें नहीं सुननी चाहिये ।
”स्वहस्तो अपि विष दिग्यश्छध” : अपना हाथ भी विषाक्त हो जाय तो काटने लायक हो जाता है । शास्त्रों में चार पुरूषों को देवता का रूप दिया गया है मनुष्यों को इन्ही रूपों की पूजा सेवा भक्ति करनी चाहिये ।
”मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव” : माता-पिता, आचार्य व अतिथि को देवता तुल्य समझकर इनकी सेवा करनी चाहिये । प्रत्येक प्रकार का व्यसन एवं कर्ज दुख व शत्रुता का कारण होता है ।
”व्यसनं मनाकू अथि बाधते” : छोटा सा व्यसन भी दुख का कारण हो जाता है ।
”ऋणकर्ता पिता बेरी माता च व्यभिचारिणी” : कर्ज लेने वाला पिता और व्यभिचारिणी माता शत्रु होते हैं ।
”अर्थवान सर्व लोकस्या बहुमत” : धनवान का बस सम्मान करते हैं । मगर जीवन का अभिशाप नरक है चिंता का बोझ है जो असहनीय होता है ।
”दरिद्रयं खुल पुरूषस्य जीवित मरणम्” : दरिद्र मनुष्य जिवित रहते हुए मृत के समान है ।
”दरिद्रयूमति दु:सहम” : दरिद्रता का दुख असहनीय होता है परन्तु जो सचेत रहता है, कार्यरत रहता है उसे दुख किस बात का ।
”नचेतकतां वाति भयम” : सदा जागरूक रहेन वाले चतुर नर को आजिविका का भय नहीं होता है ।
”पर द्रव्या पहरणभात्म द्रव्यनाश हेतु” : पराये धन का अपहरण अपने धन के विनाश का कारण होता है ।
कुछ प्रेरक सूक्तियाँ जो हर क्षण मनुष्य को कुछ भी कर्म के लिए पहले जागरूक करती है :-
”नास्त्यहंकार समशत्रु” : अहंकार के समान कोई शत्रु नहीं होता ।
”नाहिधान्य समोहयर्थ” : धान्य के समान कोई धन नहीं होता है ।
”न क्षुधासम: शत्रु” : भूख के समान कोई शत्रु नहीं होता है ।
”अधिनस्थ बुद्धि न विधते” : धनहीन व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है ।
”विद्याख्या पिता ख्याति” : विद्या ख्याति फैलाती है ।
”यश शरीरं न बिनश्यति” : यशरूपी शरीर कभी नष्ट नहीं होता है ।
”कदापिमार्यादा नतिकमेत” : मर्यादा का कभी उलंघन मत करों ।
”विषादप्यमृतं ग्राह्मम” : विष से भी अमृत ग्रहण करना चाहिये ।
”अपयशो भवं भयेषु” : अपयश भयों में सबसे भयंकर होता है ।
”कथनारूप प्रतिवचनम्” : कथन के अनुरूप उत्तर होना चाहिए ।
”आचार: कुलमाख्याति” : मनुष्य का आचारण उसके कुल को बता देता है ।
”निग्निच्छता धूमतस्यज्यते” : अग्नि की इच्छा करने वाला धूंए से बच नहीं सकता है ।
”पृथिव्यां भीगिरत्नति जलन्नं सुभाषितम” : पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं, जल, अन्न व हवा सुभाषितम हैं ।
”सत्यपूतां वद्रदेवाच” : सत्य से पवित्र किया हुआ वचन बोलना चाहिए ।
”अष्टादश पुराणेशु व्यास्य वचन द्वयं परोपकार पुन्याय पापाय पर पीड़नम” : अटठारह पुराणों में व्यास जी ने दो ही बात कही हैं परोपकार पुण्य है और दूसरों को सताना पाप है ।
”बहुनपि गुणनिको दोषो ग्रसते” : बहुत से गुणों में भी एक दोष निकल जाता है ।
”क्षुधारर्थों न तृण चरिति सिंह” : भूख से व्याकूल सिंह कभी घास नहीं खाता । अर्थात् विपदा में भी सत्यवान पुरूष अपने स्वभाव को कभी नहीं त्यागता है तथा विद्वानों की सत्संग से भी ज्ञानी हो जाता है ।
”गुणवदा श्रयान्निर्गणापि गुणी भर्वात” : गुणवान के आश्रम में रहने वाला अवगुणी भी गुणवान हो जाता है ।
”महत्संगस्तु दुल भो डगम्योऽम्रोधश्ध” : महान पुरूषों का संग दुर्लभ अगम्य और अमोघ है ।
”ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म” : ॐ ओम एक अक्षर ब्रह्म है ।
”धर्मेरिक्षति रक्षितो” : जो धर्म की रक्षा करता है उसकी धर्म रक्षा करता है ।
”श्री मयूरादध कपोतोवर” : कल मिलने वाले मोर से आज मिलने वाला कबुतर अच्छा है ।
”मूर्खस्य परिहर्तव्य प्रत्यक्षो द्विपद पशु” : मूर्ख को दो पगवाला जानवर समझकर त्याग देना चाहिये ।
”नास्तिको वेद निंदक” : वेद निंदक को ही नास्तिक कहते हैं ।
”याद्वशी भावना यश्य सिद्धर्भवंति ताद्दशी” : जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है ।
”एको देव र्स भूतेषु गुढ़ सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा” : एक ही ईश्वर सब भूतों में छिपा हुआ है सर्वत्र व्याप्त है, वह सब प्राणियों की अंतरात्मा है ।
”नवेदवाहृयोधर्म” : वेद से बाहर कोई धर्म नहीं है ।
”बुद्धिर्यस्य बलतस्य” : जिसके पास बुद्धि उसके पास बल है ।
विद्वानों, संत-महात्माओं के संग व सानिध्य में रहकर मूर्ख भी विद्वान बन जाता है । जैसे –
”निराक्षितं जलं क्षीर मेव भवति” : दूध के आश्रम में जल भी दूध के समान हो जाता है जैसे –
”रजत कनक संगात कनकं भवति” : चांदी-सोने के साथ मिलकर सोना हो जाती है ।
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(साभार – सुआलाल जाटोलिया कृत ‘श्री ज्ञान भजन प्रभाकर सटीक’)