भारत में सर्वप्रथम जूलाई, 1902 में कोल्हापुर की रियासत में छत्रपति साहूजी महाराज ने जनसंख्या के आधार पर जातियों को नौकरी में आरक्षण दिया था। चुकिं यह राजा का आदेश था, अतः सीधा विरोध न कर, पुरोहितों ने बकरे के खून से अपने हाथ रंग कर दीवारों-दरवाजों पर अन्धेरी रात में चिन्ह लगा दिया। फिर यह अफवाह फैला दी कि राजा ने कोई गलत निर्णय लिया है। अतः रियासत में अनहोनी घटना होने की संभावना है । इस झूठी साजिश का भंडाफोड होने पर इनका विरोध सफल नहीं हो पाया।
आजादी से पूर्व अंग्रेजी हुकूमत द्वारा विभिन्न गोल-मेज सम्मेलनों में तथा 1935 के संविधान में आरक्षण के प्रावधानों को स्वीकार किया गया । स्वतंत्र भारत के संविधान में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को सदियों से हुए शोषण एवं समतुल्य लाने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया । सर्वप्रथम इन जाति के लोगों की मांग उच्च शिक्षा ग्रहण करना था। उच्च शिक्षा में आरक्षण हेतु मद्रास सरकार ने इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में आरक्षण देने का निर्देश जारी किया । इन आदेश को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दे कर कोर्ट से खारिज करवाया गया । राज्य सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसे भी खारिज कर दिया गया। इस स्थिति से निजात पाने के लिए 1951 में पहला संवैधानिक संशोधन किया गया और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का प्रवाधान धारा 15 (4) के तहत किया गया।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चे उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण प्राप्त कर सरकारी नौकरिया प्राप्त करने लगे । रैगर समाज स्वतंत्रता से पहले और बाद में शिक्षा की दृष्टि से शैशवस्था में था । आर्थिक दृष्टिकोण से कमजोर था । अतः जिन-जिन राज्य में जैसे राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, चण्डीगढ़ एवं मध्यप्रदेश में इनकी बाहुल्यता थी आरक्षण का प्रवाधान राज्य की सूची में किया गया एवं केन्द्र की सूची में भी नाम रखा गया ।
समाज के लोग इन राज्यों से दूसरे राज्यों में अपने जीवन यापन हेतु पलायन कर गये । जिसे नौकरी मिली वह नौकरी के हिसाब से एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन कर गये । भारत में अनुसूचित जाति सूची के संवैधानिक (अनुसूचित जातियों) आदेश 1950 दिनांक 10/08/1950 को जारी किया गया था । इसके बाद कई बार संशोधन आदेश दिनांक 20/09/51, 25/09/56, 25/04/60, 30/06/62, 11/09/66, 25/12/70, 18/09/76 इत्यादि जारी किये गए । जिसमें राज्य सूची और केन्द्र सूची में जीतियों को दर्शाया गया था ।
आरक्षण विषय न्यायपालिका के माध्यम से दुबारा परिभाषित किया गया । उच्चतम न्यायालय ने माइग्रेशन का नया प्रावधान कर डाला अर्थात एक अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए प्रार्थी के 10.08.1950 या आदेश तिथि से पहले का किसी राज्य का निवासी होना और / या उसके माता-पिता का निवासी होने का प्रमाण मांगा जाने लगा । साथ ही यह शर्त भी लगा दी कि राज्य की अनुसूचित सूची में उस जाति का नाम भी होना आवश्यक है । इस फैसले के बाद रैगर जाति के लोगों को राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचप्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश एवं चंण्डीगढ़ के अलावा अन्य राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिला और रैगर जीति सामान्य जाति में आकर खडी हो गई ।
जाति आरक्षण सूची में कई बार संशोधन हुए और नई जातियों को राज्य सूची में स्थान दिया गया, किन्तु रैगर जाति के लोग इस प्रक्रिया का लाभ नहीं उठा सके क्योंकि अखिल भारतीय रैगर महासभा और अन्य संगठनों के कार्यकलापों में इस विषय को प्राथमिकता से नहीं लिया गया । राज्य विशेष में बसे लोग अपने स्तर पर इसकी मांग करते रहे जिसकी आवाज नहीं सुनी गई । आज भी रैगर समाज के लोग कई वर्षों से अन्य क्षेत्रों में बस गए हैं यहां तक कि नौकरी करने वाले भी उन्हें अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र नहीं मिल पाता है क्योंकि शर्ते कठोर कर दी गई है यहां कि अपने मूल राज्य में भी अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनके पास अपने राज्य में मूल निवास, वोटर लिस्ट में नाम न होना तथा राशन कार्ड न होने, पटवारी की रिपोर्ट, सरपंच कि रिपोर्ट इत्यादि के कारण इनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पाया है ।
उदारीकरण एवं शिक्षा का व्यापारीकरण होने से भी इस जाति के लोगों को अपने जीवन यापन के लिए नई परेशनियों का सामना करना पड रहा है । उच्च शिक्षणसंस्थानों की शुल्क इतनी अधिक है कि साधारण व्यक्ति द्वारा वहन नहीं की जा सकती है बाध्य होकर अपने बच्चों को वही पुरानी कला, विज्ञान एवं वाणिज्य की पढ़ाई करवा रहे हैं । जिसका वजूद धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और तथाकथित शिक्षित बेरोजगारों की फौज तैयार हो रही है ।
यही स्थिति कम और अधिक सभी अनुसूचित जातियों की है । जब-जब सरकारी नौकरियों में तथा शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की बात उठाई जाती है तो सरकारें भूमण्डलीकरण की चादर से ढ़क देते हैं और एन. जी. ओ., आउटसोर्सिंग के माध्यम से कार्य करने का चाल मूल निवासियों को सरकार की भागीदारी से हटाने का एक नया रास्ता है । कुल मिलाकर तकनीकि उच्च शिक्षा के हमारे बूते से बाहर की बात हो गई है । यदि कोई व्यक्ति हिम्मत करके इस निजी संस्थानों में अपने बच्चों को भेजता है तो जो शुल्क भुगतान होती है उसकी 100% छात्रवृर्ति भी नहीं दी जाती है । छात्रवृर्ति भी बहुत कम आय वाले माता-पिता के बच्चों को ही दि जाती हैं । शिक्षण ऋण लेकर परिवार कर्ज का भागीदार हो जाता है ।
शिक्षा का दुसरा पहलू बड़ा ही कष्टदायक है सर्व शिक्षा के नाम पर तथा मिड डे मिल के नाम पर बच्चों को पढ़ाने के स्थान पर खाना खिलाकर शिक्षा की खाना-पूर्ति की जा रही है । अब पांचवीं कक्षा तक अनुर्तीण नहीं करने का माध्यम हो गया है और सातवीं कक्षा तक धक्का देकर पास करने की स्थिति हो गई है क्योंकि कक्षाओं में अधिक बच्चों को दिखाने से ही मिड डे मिल का बजट मिलेगा । मिड डे मिल द्वारा शिक्षक और छात्र की गरिमा को समाप्त कर दिया गया है क्योंकि छात्र के माध्यम से ही मिड डे मिल में भ्रष्टाचार शुरू हो गया है । आजकल हर गांव में अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल खूल गए हैं अतः सक्षम लोग अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजते हैं और गरीब का बच्चा सर्व शिक्षा एवं मिड डे मिल के षडयंत्र में फंस गया है क्योंकि शिक्षक भी जानता है कि सक्षम लोगों के बच्चो इन स्कूलों में नहीं आते हैं । अतः हमारी नौकरी पर कोई खतरा नहीं है ।इन छात्रों को पढ़ाये या न पढ़ाये।
अतः अखिल भारतीय रैगर महासभा के पदाधिकारियों एवं राजनीतिक पार्टियों में सक्रिय लोगों तथा प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों से यह अपील है कि रैगर जाति को सभी राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों में अनुसूचित जाति की सूची में शामित करने के लिए सक्रिय सतत् प्रयास करें और भारत सरकार, अनुसूचितजाति आयोग, राज्य सरकारों से पत्राचार कर इस विषय में ठोस कार्यवाही की जाएं ।
लेखक : सी. एम. चान्दोलिया