जीवन
जीवन की प्रत्येक प्रभात मेरा एक नया जन्म है और मेरा एक दिन मेरे लिए एक जीवन के बराबर है । मैं आज ही वह सब कुछ करूँगा जिसके लिए मेरे परमात्मा ने इस धरती पर मुझे जन्म दिया है । हमारा जीना व दुनिया से जाना दोनों ही गौरवपूर्ण होने चाहिए । कीर्तिर्यस्य स जीवति । कायर व कमजोर होकर नहीं अपितु स्वाभिमान व आत्मज्ञान के साथ जीवन को जियो । भगवान ने महान् कार्य करने हेतु तुम्हारा सृजन किया है । न भागो! न भोगो !! भागने वाले कायर, कमजोर बुज़दिल लोग होते हैं तथा भोगी अविवेकी होते हैं । अतः जागो !
जीवन एक उत्सव है । जीवन परमात्मा की सबसे बड़ी सौगात है । जीवन परमेश्वर का उत्कृष्ट उपहार है । यह देह देवालय, शिवालय व भगवान का मन्दिर है । यह शरीर अयोध्या है, आत्मा अमर, अजर, नित्य, अनिवाशी, ज्योतिर्मय, तेजोमय, शान्तिमय व तृप्त है । जब तक दम में दम है, व्यक्ति को बेदम नहीं होना चहिए । सुखियों के प्रति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, सज्जनों से प्रीति एवं दुष्टों की उपेक्षा करते हुए दृढ़ता के साथ ध्येय की ओर आगे बढ़ते रहना, आपको एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी व जीवन में सदा प्रसन्नता रहेगी ।
माता-पिता धरती के भगवान
सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो । दूसरों को सम्मान दो, तुम्हें सम्मान मिलेगा । दूसरों को सुख दो, तुम्हें सुख मिलेगा । अपने माँ-बाप की सेवा करना, बुढ़ापे में तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी सेवा करेंगे । माँ नौ महीने बच्चे को कोख में प्रेम, करुणा, ममता व वात्सल्य से रखती है । इसके बाद नौ माह गोद और जब तक माँ का प्राणान्त नहीं हो जाता तब तक वह अपने बच्चे को हृदय में रखती है ।
माता-पिता के चरणों में चारों धाम हैं । माता-पिता इस धरती के भगवान् हैं । बच्चे ही माँ-बाप के अरमान हैं । ऐसे माता-पिता का कभी अपमान नहीं करना । उनको वृद्धाश्रमों में नहीं छोड़ना, नहीं तो अगले जीवन में भगवान् तुम्हें पशु योनि पैदा करेंगे जिससे कि तुम्हें तुम्हारे बाप का तो अक्सर पता ही नहीं होगा और माँ बचपन में ही तुम्हें छोड़ देगी । जैसा करोगे, वैसा भरोगे । अतः आओ! फिर से ”मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव“ की संस्कृति अपनाओ !
भगवान् ही माता-पिता बनकर हमें जन्म देते हैं तथा गुरु बनकर हमें ज्ञान देते हैं । इस प्रकार सब सम्बन्धों में ब्रह्म-सम्बन्ध की अनुभूति करना ही योग है । अतीत को कभी विस्मृत न करो-अतीत को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए । अतीत का बोध हमें गलतियों से बचाता है तथा शीर्ष पर पहुँचे हुए व्यक्ति को अतीत की स्मृति अहंकार नहीं आने देती । अतीत को विस्मृत करने के कारण ही व्यक्ति माँ-बाप को भूल जाता है । यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते । आसमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के जमीन से पैर नहीं उखड़ने देती ।
नारी का अपमान, माँ का अपमान है
नारी का असली सौन्दर्य शरीर नहीं, शील है । नारी बाजार का बिकाऊ उत्पाद नहीं है । वह सीता, सावित्री, कौशल्या, जगदम्बा, दुर्गा, तारावती, गार्गी, मदालसा, महालक्ष्मी, मीरा व लक्ष्मीबाई है । नारी माँ की ममता, पत्नी की पवित्रता व बेटी का प्यार है । नारी को बाजार का बिकाऊ सामान मत बनाओ एवं नारी की तस्वीर में शील का मजाक मत उड़ावो । यह माँ का अपमान है । राष्ट्र की जागरुक माँ, बहन एवं बेटियों के चरित्र पर आज इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जिस तरह से प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं, उनका पूरी ताकत से विरोध करना चाहिए और इन सड़े हुए दिमाग वाले बाजार के क्रूर दरिन्दों को अहसास दिलाना चाहिए कि भारत की नारी चरित्रहीन नहीं, वह पवित्रता की पराकाष्ठा है । भारत की 50 करोड़ से अधिक माँ, बहन, बेटियों का सम्मान, मेरा सम्मान है एवं उनका अपमान मेरा अपमान है । नारी के सम्मान की रक्षा करना, मेरा स्वधर्म है । क्योंकि वह मेरी माँ, बहन, बेटी है ।
उत्कर्ष के साथ संघर्ष न छोड़ो !
जो संस्कृति जितनी विकसित होती है, जो संस्कृति, व्यक्ति, समाज व राष्ट्र जितना विकसित होता है, अधिकतर वो संस्कृति, व्यक्ति, समाज व राष्ट्र उतना ही आलसी हो जाता है और यही उसके पतन का कारण बन जाता है, अतः उत्कर्ष के साथ संघर्ष कम नहीं होना चहिए ।
सेवा
बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती है और चितशुद्धि के बिना परमात्मतत्त्व की अनुभूति नहीं होती । अतः सेवा के अवसर ढूंढते रहना चाहिए ।
समाज सुधारक
मनुष्य स्वयं से अधिक दूसरों के प्रति सजग रहता है । जितनी सजगता दूसरों के लिए रखते हैं उतने ही यदि हम स्वयं के प्रति सजग हो जायें, अपने मन, विचार, भाव, स्वभाव व कार्यों के प्रति जागरूक हो जाएं तो हमारा कल्याण हो जाए । अतः जगत् कल्याण के लिए सुधारक बनने से पहले एक अच्छे साधक बनना । पहले साधक बनो, सुधारक तो फिर तुम स्वयं बन जाओगे । जैसे छाया वृक्ष का परिणाम होती है, वृक्ष होगा तो छाया मिलेगी ही । साधक बन जाओगे तो सुधार तो स्वतः ही घटित होगा । जो स्वयं तृप्त नहीं है वह दूसरों को कैसे तृप्त कर पायेगा । सोया हुआ इन्सान दूसरों को कैसे जगायेगा या भूखा इन्सान दूसरों की भूख कैसे मिटा पायेगा ? अतः विश्व कल्याण हेतु प्रथम आत्म-कल्याण के लिए साधना करो, प्रथम साधक बनो, फिर सुधारक बनना । प्रथम स्वयं जागो ! फिर औरों को जगाओ !!
चित्र नहीं, चरित्र की पूजा करो
चित्र नहीं चरित्र की पूजा करो, व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की पूजा करो । हम मात्र पाषाण प्रतिमाओं के पूजक बनकर ही जीवन न जियें । हम चैतन्य के उपासक बनकर पाषाण हृदयों में योगशक्ति से भक्ति एवं राष्ट्र चेतना का प्रवाह जगाएं ।
कर्म
कर्म ही धर्म है, कर्म ही पूजा है । आराम हराम है तथा कार्यान्तर ही विश्राम है । स्वकर्म ही स्वधर्म है । स्वकर्म के प्रति पूर्ण समर्पण ही भगवान् की पूजा है ।
जब चन्द पैसों की खातिर अपने ही वतन के लोग बेईमान हो सकते हैं तो देश के वैभव को बचाने की खातिर देश के लोगों को क्या ईमानदार नहीं बनाया जा सकता । चन्द लोग चन्द टुकड़ों की खातिर राष्ट्र बेच देते हैं, गद्दारी कर लेते हैं परन्तु ऐसे सैकड़ों और हजारों लोग हैं, जो राष्ट्र के लिए कट सकते हैं किन्तु बिक नहीं सकते । ह ऐसे राष्ट्रवादी लोगों को संगठित करना है ।
मैं से ममता
जहाँ मैं और मेरा जुड़ जाता है वहाँ ममता, प्रेम, करुणा एवं समर्पण पैदा होते हैं, वहाँ सेवा एवं सद्भाव स्वतः स्फुटित होने लगते हैं । सांसारिक सम्बन्धों में जहाँ मैं और मेरा जुड़ा होता है, उन सगे सम्बन्धियों के लिए हम सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहते हैं । जब देश के साथ मैं और मेरा जुड़ता है अर्थात् यह देश मेरा है और मैं आज जो कुछ भी हूँ, देश की बदौलत हूँ । तब व्यक्ति में देश के लिए सर्वस्व आहूत करने की भावना जागती है । मुझमें जो प्राण हैं, वे इस देश की माटी पर लगे वृक्षों की वजह से हैं । इस देश ने मुझे जन्म दिया, इस देश की माटी से पैदा हुए अन्न-जल से मैं जीवित हूँ । देश से मुझे धन, सत्ता, सम्पत्ति व सम्मान मिला है । इस देश की माँ, बहन, बेटियों, बच्चों व इन्सानों की आँखों के आँसू मेरी पीड़ा है व देश की खुशहाली मेरी प्रसन्नता है । देश का एक भी व्यक्ति यदि बेसहारा, बेबस, लाचार, भूखा या बीमार है, तो माँ भारती की यह पीड़ा मेरी पीड़ा है, मेरा दर्द है, यह मेरा कर्त्तव्य या फर्ज़ है, यह मेरा राष्ट्र धर्म है, यह मेरा सेवा धर्म है कि मेरे देश के एक भी व्यक्ति की मौत बीमारी या भूख से न हो ।
ऐसा क्यो न सोचे ? -दृष्टि
“न” के लिए अनुमति नहीं है (No permission for “No”) । करिष्ये वचनं तव आत्मा, समाज, राष्ट्र और विश्वकल्याण के लिए गुरु व शास्त्र ने जो उपदेश व निर्देश दिये हैं, मैं उनका प्राणार्पण से पालन करूँगा । यह हमारी कार्य-संस्कृति है । अपनी Frequency सदैव Positive Mode पर set करके रखें क्योंकि इस ब्रह्माण्ड के द्यूलोक व अन्तरिक्ष लोक से सकारात्मक ऊर्जा व नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता रहता है । हमें ब्रह्माण्ड से सकारात्मक ऊर्जा को ही स्वीकार करना है ।
मैं, अकेला क्या कर सकता हूँ, इसकी बजाय हमेशा यह सोचें कि मैं क्या नहीं कर सकता! दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं, सब कुछ सम्भव है । जब भ्रष्ट, बेईमान, अपराधी, गैर जिम्मेदार, देशद्रोही व देश के गद्दार लोग मिल कर देश को लूट सकते हैं तो देशभक्त, ईमानदार, कर्तव्य-पारायण व जागरुक लोग मिल कर देश को क्यों नहीं बचा सकते ! शंका त्याग, सकारात्मक बनो ! तुम सत्य, प्रेम, स्वयं और ईश्वर पर भी कभी-कभी शंका करने लगते हो परन्तु आश्चर्य है कि व्यक्ति असत्य व घृणा पर कभी भी शंका नहीं करता । सदा सकारात्मक रहो ! सदा ग्राही बनो ! प्रतिपल भगवान् की ड्डपा का संस्पर्श अनुभव करो ! भगवान् सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं ।
संवेदनशील बनो
भावुकता व्यक्ति को विवेकशून्य बना देती और संवेदनहीनता इन्सानियत को मिटा देती है । अतः भावुक नहीं संवेदनशील बनो । संवेदनशीलता हमें अपने कर्त्तव्य-परायणता का अहसास करवाती है व स्वधर्म एवं राष्ट्रधर्म में नियुक्त करती है ।
स्वधर्म
जैसे सर्दी, गर्मी, भूख व प्यास आदि शरीर के धर्म हैं, मान-अपमान, सुख-दुःख व लाभ-हानि आदि मन के धर्म है । वैसे ही प्रमे, करुणा, वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति, सर्मपण, शान्ति व आनन्द आदि आत्मा के धर्म है । आत्मधर्म ही तुम्हारा स्वधर्म है । स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिलेगी । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 1846) ।
प्रेम
प्रेम , वासना नहीं उपासना है । वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है प्रमे समर्पण एवं विश्वास की परकाष्ठा है । प्रेम, करुणा एवं वात्सल्य स्वधर्म है । प्रेम, पवित्रता, ममता व वात्सल्य की शीतल छाया तथा संघर्ष साहस, शौर्य व स्वाभिमान का सम्मान है । माता-पिता का बच्चों के प्रति, आचार्य का शिष्यों के प्रति, राष्ट्रभक्त का मातृभूमि के प्रति प्रमे ही सच्चा प्रेम है । अन्य तो प्रेम के नाम पर मोह, भ्रम व शरीर तृष्णा की मिथ्या तृप्ति का धोखा है ।
गुरु
सन्त, गुरु या आचार्य चेतना के जिस उन्नत स्तर पर जी रहे हैं या जीवन मुक्त अवस्था में रहते हुए प्रज्ञा प्रासाद पर आरूढ़ होकर व ऋतम्भरा प्रज्ञा से युक्त होकर जो हमें उपदेश दे रहे हैं यदि जीवन चेतना के उसी स्तर से हम स्वयं को जोड़ देंगे तो हम भी वही बोलेंगे जो सन्त बोल रहे हैं और हमारा भी जीवन सन्तों की तरह पूर्ण रूप से रूपान्तरित हो जायेगा ।
गुरु वह है ! जो जगा दे, परम से मिला दे, दिशा बता दे, खोया हुआ दिला दे, पुकारना सिखा दे, आत्म-परिचय करा दे, मार्ग दिखा दे और अन्त में अपने जैसा बना दे । लेकिन याद रखना गुरु मार्गदर्शक है, चलना तो स्वयं ही पड़ेगा ।
किसी सूफी सन्त से किसी ने परिचय पूछा क्या खाते हो? क्या पहनते हो? कहाँ रहते हो? उस सन्त ने उत्तर दिया- मौत को खाता हूँ, कफन ओढ़ता हूँ तथा कब्र में रहता हूँ ।
गुरु का दर्शन
गुरु या साधु-संत के साथ मन, बुद्धि, वाणी, व्यवहार एवं संकल्प से एकाकार हो जाना तथा उन जैसी दिव्य चेतना के साथ जीवन को जीना ही उनका सच्चा दर्शन है । इसे ही कहते हैं ”साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः ।“ हाड़-मांस के इस देह के दर्शन करने मात्र से सम्पूर्ण पुण्य मिलने वाला नहीं है । देह के भीतर देही को देखो ।
गुरु से संवाद
प्रत्यक्ष या परोक्ष गुरुओं के ग्रन्थों का स्वाध्याय करने का अर्थ है संबोधि को प्राप्त उन प्रत्यक्ष या परोक्ष गुरुओं के साथ सीधा संवाद । शास्त्र एवं गुरु के द्वारा लिखित शब्दों से एक-एक दिव्य ध्वनि तुम्हें प्रतिध्वनित होगी और तुम्हें लगेगे शास्त्र एवं गुरु के शब्दों में उनका जीवन बोल रहा है । ऐसा स्वाध्याय हमारे जीवन को रूपान्तरित करता है और हमें गुरुओं का प्रतिरूप बना देता है ।
धर्म
सार्वभौमिक व वैज्ञानिक सत्य ही सार्वभौमिक धर्म है । जो सार्वभौमिक व वैज्ञानिक मापदण्डों पर खरा नहीं उतरता वह धर्म नहीं, भ्रम है । मैं धार्मिक हूँ, धर्मान्ध नहीं । मैं धर्म को धन्धा व कर्म को गन्दा नहीं बनाऊंगा ।
श्रेष्ठ आचरण का नाम ही धर्म है । धर्म मात्र प्रतीकात्मक नहीं आचरणात्मक है । शिखा सूत्र व अन्य धार्मिक प्रतीकों के भी मूल में आचरण ही प्रधान है । आचारहीन प्रतीकात्मक धर्म से भ्रम या धर्मान्धता पैदा होती है । अतः हम धार्मिक बनें, धर्मान्ध नहीं । मै धर्म-परिवर्तन में विश्वास नहीं करता । अहिंसा, सत्य, प्रमे , करुणा, वात्सल्य, सेवा, संयम व सदाचार आदि जीवन का श्रेष्ठ आचरण ही धर्म है । और ये सभी आचरणात्मक गुण, सभी धर्मों में हैं । अतः धर्म में परिवर्तन जैसा कुछ है ही नहीं । धर्म तो धारण करने योग्य जीवन की श्रेष्ठ मर्यादाएं हैं । विद्यालय या चिकित्सालय चलाकर लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए प्रेि रत करने को मै उचित नहीं मानता क्योंकि मैंने भी सभी वर्ग व मजहबों के करोड़ों लोगों के जीवन में परिवर्तन किया है । उनको आरोग्य दिया है, मौत के करीब पहुँच चुके लोगों को जिन्दगी दी है, परन्तु एक भी व्यक्ति का धर्म या मजहब नहीं बदला ।
आहार
जैसे विषयुक्त आहार हमारे शरीर में भयंकर विकार उत्पन्न करता है वैसे ही विकार युक्त विचार भी हमारे मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर भयंकर तनाव, दुःख, अशान्ति व असाध्य रोग उत्पन्न करते हैं । अतः यदि आप एक ऊँचा व्यक्तित्व पाना चाहते हो तो आहार एवं विचारों के प्रति प्रतिपल सजग रहना । व्यक्ति अपने शरीर के प्रति जितनी बेरहमी बर्तता है शायद इतनी बेरहमी वह किसी के साथ नहीं करता । यह देह देवालय, शिवालय है । यह शरीर भगवान् का मन्दिर है । इसे शराब पीकर सुरालय, तम्बाकु आदि खाकर रोगालय और मांसादि खाकर इसे श्मशान या कब्रिस्तान नहीं बनाओ । ऋत्भुक्, मित्भुक् व हितभुक् बनो । समय से, सात्विक, संतुलित व सम्पूर्ण आहार का सेवन कर शरीर को स्वस्थ बनाओ ।
शाकाहार ही क्यो ?
जैसे इस दुनिया ह जीने का हक है, वैसे ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी निर्भय होकर यहां जीने का अधिकार है । यदि हम किसी जीव को पैदा नहीं कर सकते तो आखिर उन्हें मारने का अधिकार हमें किसने दिया है । और हम किसी पशु-जीव या प्राणी को इसलिए मार देते हैं कि ये देखने में हमारे जैसे नहीं लगते । वैसे तो सब प्राणियों के दिल, दिमाग व आँखें होती हैं । इनको दुःख या गहरी पीड़ा होती है । लेकिन हम इसलिए उन्हें मार दें कि उनके पास अपनी सुरु क्षा के लिए हथियार नहीं है या लोकतन्त्र की नई तानाशाही के इस युग में उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं है । इसलिए उनकी सुरक्षा का सरकारों को दरकार नहीं है । काश! उनको भी हमारे जैसी बोली बोलनी आती तो अपनी पीड़ा व दर्द से शायद वे इन्सान को अवगत करा देते, लेकिन क्या करें, बेचारे इन जीवों को इन्सानी भाषा नहीं आती और हम बेरहमी से निरपराधी, निरीह, मूक प्राणियों की हत्याएं करके खुशिया मनाते हैं और दरिंदगी के साथ कुत्तों एवं भेड़ियों की तरह मांस को नोच-नोचकर खाने में गौरव का अनुभव करते हैं । इससे ज्यादा घोर पाप और अपराध और कुछ नहीं हो सकता । जब बिना निर्दोष प्राणियों की हत्या किए शाकाहार से तुम जीवन जी सकते हो तो क्यों प्राणियों का कत्ल कर रहे हो? मनुष्य स्वभाव से ही शाकाहारी है । मानवीय शरीर की संरचना शाकाहारी प्राणी की है, यह वैज्ञानिक सत्य है ।
क्षमता
असम्भव को सम्भव करने की अपार क्षमता, सामर्थ्य व ऊर्जा तुम्हारे भीतर सन्निहित है । तुम भी दुनिया के प्रथम पंक्ति के लोगों में खड़े होने का गौरव प्राप्त कर सकते हो । काल के भाल पर अपनी शक्ति, साहस व शौर्य से नया इतिहास लिख सकते हो ।
समय व जीवन-प्रबन्धन
समय ही सम्पत्ति है जो समय का सम्मान नहीं करता तथा समय के साथ नहीं चलता उसको समय कभी माफ नहीं करता । छः घंटा निद्रा के लिए, एक घंटा योग के लिए, एक घंटा नित्यकर्म के लिए, दो घंटे का समय परिवार के सदस्यों के लिए देते हुए चौदह घंटे कठोर परिश्रम करना चाहिए । यह जीवन में समय का श्रेष्ठ प्रबन्धन है । यह जीवन प्रबन्ध या जीवन दर्शन है ।
व्यवहार-समदर्शी बनो !
समभाव सर्वत्र रखें; समदर्शी बनें परन्तु समव्यवहार कभी भी सम्भव नहीं होता है । सब मेरे भगवान् के स्वरूप हैं । सब मेरे ही स्वरूप हैं, मैं सबमें हूँ, सब मुझमें हैं, मेरे ही ‘मैं’ का विस्तार है सारा संसार यह है समभाव । गुरु के साथ गुरु जैसा व्यवहार करना चाहिए । माँ, बेटी एवं पत्नी के साथ सांसारिक व व्यवहारिक भेद होगा । परमात्मा भी सबके साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करता, वह दुष्टों को दण्ड देता व सज्जनों की रक्षा करता है । वह दयालु भी है और न्यायकारी भी है । भाव आत्मा के स्तर पर होता है जबकि व्यवहार शरीर एवं संसार के स्तर पर होता है ।